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________________ . श्रीमद्भगवद्गीता _ "कीति” कहते हैं मरे हुए लोगोंकी ख्यातिको। स्वाधिष्ठानके नीचे कामपुरसे मूलाधार पर्य्यन्त इस महाशक्तिका अधिकार है । संसारमें जितनी कुछ कामना हैं, यह शक्ति उन्हीं समुदयके पालन करनेवाली है। मनुष्य कामनाके वशसे जो कुछ भला वा बुरा काम करता है, शरीरान्तमें वह सब रह जाता है ( जसे वंश परम्परामें वंश रक्षा ); उसीको कीर्ति कहते हैं । 'श्री' कहते हैं जिनकी सब कोई सेवा करे। देवता, गुरु गुरुस्थान, क्षेत्र, क्षेत्राधिदेवता, सिद्ध, सिद्धाधिकारके पहले ही जिसके स्थान है, वेसी परमाराध्य देवाको "श्री" कहते हैं। यह देवी सत्त्वगुणकी सर्वश्रेष्ठ अधिष्ठात्री देवी है; इसलिये सौन्दर्य्य वा दीप्तिको 'श्री' कहते हैं। सुषुम्ना-संलग्न स्वाधिष्ठान इसकी लीला भूमि है, जहां रहती है उन सबकी वृद्धि करना इसकी क्रिया है। ___ "बा" कहते हैं भावव्यंजक शब्दको। शब्दविन्यास तेज सहायतासे उच्चारित होता है। इसलिये यह शब्दाधिष्ठात्री वाग्देवी तेजस्थान मणिपुर चक्रमें रहने वाली है। _ "स्मृति” कहते हैं पूर्वकृत कर्मके स्मरणको। यह महाशक्ति चारों अन्तःकरणमें ही ( मन, बुद्धि, अहंकार और चित्तमें ) विहार करनेवाली है। इसकी लीला-स्थान अनाहत चक्रके मनोमय कोषमें है। "मेधा”-जिसमें बहुश्रुत सङ्ग समूह विषयके सदृश (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, ) छापा रहे, उसीको मेधा वा स्मरणशक्ति कहते हैं । इसके कार्य के लिये प्रशस्त स्थानके प्रयोजन हेतु यह विशुद्ध चक्र (आकाशस्थान ) में रहती है। "धृति'-धारणावती शक्ति । इसका स्थान प्राज्ञाचक्र है। 'क्षमा-सहिष्णुता शक्ति। 'वाह्य वाध्यात्मिके चैव दुखे चौतपातिके क्वचित् । न कुप्यति न वा हन्ति सा क्षमा परिकीर्तिता।' यह देवी सहस्रारवासिनी है।
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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