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________________ दशम अध्याय ४७ स्वतःसिद्ध होनेसे दिखलानेका प्रयोजन नहीं होता। बड़ोंके साथ जो मिलता है, वह भी बड़ा होता है। साधक ! जब तुम मायाके घेरमें थे, उस अवस्थाको और इस ब्रह्ममें स्थिति-अवस्थाको मिला देखो। तुम्हारी उस मायासे घेरी हुई अवस्थामें इस अवस्थाका परिज्ञान नहीं था, केवल मायाका प्राधान्य खिल रहा था, ऐसा जो ब्रह्मत्व, यह भी तब बुझाया हुआ था। इसलिये 'द्वन्द्व' सजा नहीं। तब भी ब्रह्मको छोड़कर माया नहीं थी; परन्तु उस समय अपनेको प्रधान बनाकर ब्रह्मको दाब रक्खी थी। और अब ? अब ब्रह्म और माया दोनों तुम्हारे पास समान रूपसे विद्यमान हैं। किसीकी प्राधान्यताका ह्रास वा वृद्धि नहीं है । यह जो दो मिलकर एक होना, इसीको समास कहते हैं। और उसी प्रकार सबका प्राधान्य तैयार रख कर परस्परका जो एकता भाव है उसीको “द्वन्द्व" समास कहते हैं। "मैं" क्रिया विहीन होनेसे भी क्रियाशाली मायावियों (मायाविशिष्टों) हममें रह करके जो अपना अपना प्राधान्य दिखाते हैं, तथापि हमसे उन सबको पृथक नहीं होने पड़ता। मैं बड़ा हो करके मी उन सबके प्राधाम्यमें कोई विघ्न नहीं करता हूं, सबके साथ मिला रहनेके सदृश रहता हूं, जैसे उन सबको खिलनेसे (प्रस्फुटित होनेसे ) मैं खिल रहा हूँ, यही द्वन्द्व समास है। इस अवस्थामें ही ज्ञान पूर्ण विकशित होता है। इसीलिये मैं समासके भीतर द्वन्द्व समास हूं। "अहमेवाक्षयः कालः”। यह जो काल अखण्ड दण्डायमान है, ज्योतिर्विद् लोग इसको कला, काष्ठा, क्षण, लव आदिसे खण्ड विखण्ड करके संख्यामें लानेसे भी जैसे खण्डत्वका कुछ भी कलंक इसके अखण्डत्वमें नहीं पड़ता; वैसे ही "मैं” कहनेसे भूत, भविष्यत् दे करके "मैं” के वर्तमानताके अभाव भी कोई कर नहीं सकता। इसलिये क्षय परिशून्य इस पर भी क्षयोदयका विश्रामस्थल काल भी मैं हूँ।
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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