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________________ दशम अध्याय . प्रकारके श्रेष्ठत्व विराजित हैं (जैसे 'सोऽहं, मत्स'-वही मैं हूँ ; 'सोऽहं ब्रह्मास्मि' मैं वही ब्रह्म हूँ। 'अहं ब्रह्मास्मि'-मैं ही ब्रह्म हूँ; इत्याकार जितना प्रकार साधन-संग्रामी शब्द हैं, अर्थात् जिनका साधन करनेसे ब्रह्ममय कराय देते हैं, वह सब अति ऊचे ऊंचे विभूति से सुभूषित हैं। इन सभोंके भीतर 'मकर'। ___("म" श्चन्द्र च शिवे विष्णौ ब्रह्मणि च यमेऽपि च । . विषे च बन्धने मन्त्रे समयेऽपि प्रकीर्तितः॥ "क" स्याद् ब्रह्मणि विष्णौ च महेश्वरे समीरणे । ____ अर्काग्नियमदक्षेषु पार्थिवे च पतत्रिणि ॥ कामे काले मयूरे च कलेवरेऽपि चात्मनि । शब्दे दीप्तौ धने रोगे सुखशीर्षजलेषु च ॥ "र:” पावके तथा तीक्ष्णे भूमौ कामनले धने । ___ इन्द्रिये धनरोधे च रामेऽनिले तथैव च ॥) जिसमें यमका नियामकत्व, कामका कामानल, चन्द्रकी पुष्टि, शिवकी स्थिति, विष्णुको व्याप्ति, ब्रह्माका कृतित्व, विषका संहारकत्व, पवनकी जीवनी, बन्धनकी कठोरता, मन्त्रकी सिद्धि, समयका अखण्डत्व, सूर्याग्निकी दीप्ति, दक्षका प्रजापतित्व है; जो ग्रहण करना जानते हैं, त्याग करना नहीं जानते, (जिसको ग्रहण करते हैं उसको छोड़ते नहीं, जैसे अस्तोन्मुख सूर्य-किरण-फलित छाया और सूर्य) उन्हींको ‘मकर' कहते हैं। मकर पतित-पावनी गङ्गाका वाहन है । जो महाशक्ति पतितको पावन करती है, वह महाशक्ति भी मेरे ही आश्रित है; इसलिये मैं झषोंके ( मत्स्योंके ) भीतर मकर हूँ। "स्रोतसामस्मि जाहवी'। स्रोतस्वती वा प्रवाहिणी नदियोंके भीतर मैं जाह्नवी (गङ्गा) हूँ। आदि अन्त रहनेसे प्रवाहिणी नहीं होती। जिस प्रवाहका आदि, अन्त निर्देश नहीं किया जा सकता उसीको प्रवाहिणी कहते हैं, जैसे निर्मल ज्ञानका प्रवाह है। इस
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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