SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 351
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३४२ श्रीमद्भगवद्गीता व्याख्या। हे राजन् ! बार-बार केशवार्जुनका वह पुण्यमय (पु-पुय, णक्=निर्वाण मुक्ति, यं-स्वरूप, अर्थात् क्लेदमय शरीरसे निर्वाण देके स्वस्वरूप प्राप्ति जो कराता है उसको ही पुण्य कहते हैं ) अद्भुत संवाद स्मरण करके प्रतिक्षणमें आनन्द अनुभव करता हूँ। इस आनन्दकी सीमा नहीं है। क्रियाकी-परावस्थाकी पूर्वावस्थामें उस मोहन रूप, तथा क्रियाकी-परावस्थाकी परावस्थामें वह जीव, ईश्वर और मायाका स्वरूप सम्बन्धकी उपलब्धि, उसी मोहन स्वरकी लहरी, जो कह करके व्यक्त करनेका विषय नहीं है, जबही मनमें पाता है तबही आनन्दके मारे शरीरको रोमावली कण्टकित सदृश होता है । इसे भुक्तभोगी समझ लेवेंगे ॥ ७६ ॥ तच्च संस्मृत्य संस्मृत्य रूपमत्यद्भुतं हरेः। विस्मयो मे महान राजन् हृष्यामि च पुनः पुनः॥ ७७ ॥ अन्धयः। हे राजन् ! हरेः तत् अद्भ तं रूपं (विश्वरूपं ) च संस्मृत्य संस्मृत्य मे महान् विस्मयः ( भवति ) पुनः पुनः हृष्यामि च ॥ ७ ॥ अनुवाद। हे राजन् ! और हरिका उस अति अद्भ त रूप ( विश्वरूप ) का बार बार स्मरण करके हमें महान् विस्मय होता है, और पुनः पुनः मैं हृष्ट होता . हूँ ॥ ७ ॥ व्याख्या। पुनराय हरिका उस अद्भुत रूप ( भूतमें कभी जो दिखाई नहीं पड़ा ) विश्वरूप के बार-बार स्मृतिमें हमारे अन्तःकरणमें महान् आश्चर्य्य सदृश बोध होता है; क्योंकि एक जो कभी अनेक नहीं होता उस सिद्धान्तमें अब मैं उपनीत हुआ हूँ; इसलिये हमें बारबार हर्षोंद्रेक होता है ॥ ७७ ॥ यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः । तत्र श्रीविजयो भूतिध्र वा नीतिमतिर्मम ॥ ८ ॥ , अन्वयः। यत्र ( यस्मिन् पक्षे) योगेश्वरः कृष्णः ( वर्तते ), यत्र च पार्थ:
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy