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________________ ३३४ श्रीमद्भगवद्गीता जिस प्रकार कार्य करनेके लिये उपदेश देता हूँ एकमात्र उसी उपदेश अनुसार, वही हमारा 'स्वकर्मणा तमभ्यर्य' इत्यादि और 'तमेव शरणं गच्छ' वाक्यके अनुसार कम करते चलो। तुम जितने प्रकारके पापकी आशंका और भय करते हो; उन समुदय पापसे मैं तुमको मुक्त करूगा-मैं तुम्हारे सकल प्रकारके कर्म-बन्धनको मोचन करूंगा। शोक और न करो-पापग्रस्त होओगे इस आशंकासे और विषण्ण न होओ। ___ यह लौकिक अर्थ हुआ। अब योगशास्त्रविहित आध्यात्मिक अर्थ क्या है वह देखा जाता है। मूलाधारादि पाँच चक्रके क्षिति आदि पांच भूतका नाम सर्व है। शब्द, स्पर्श, रूप, रस, और गन्ध ये पाँच विषय ही उन पांच भूतोंका धर्म हैं। अतएव भोग्य विषयको ही सर्वधम कहते हैं । और सर्वपाप क्या ?-ना, उन सर्वधर्मों के सम्पर्कमें रह करके जिन सब कर्मों की सृष्टि होती है, वह सब सुकृति ही हो चाहे दुष्कृति ही हो जिसके फलसे स्वर्गादि भोग वा नरकादि भोग होता है, अर्थात् जिसमें फलभोग बन्धन है, वह सब कर्म ही सर्वपाप हैं। पाप मैलाको-मनकी चचलताको कहते हैं, जो आत्माको मलिन कर रखता है, विषयावरण से ढक रखता है, विषय अतिक्रम होने देता नहीं, बांध रखता है, उसे पाप कहते हैं। कर्म ही जीवको सुख-दुःख रूप संसारबन्धनमें बांध रखता हैं। इसलिये विषय-सम्पर्कित कर्मको ही सर्वपाप कहते हैं। श्रीभगवान कहते हैं 'सर्वधर्मान्परित्यज्य' अर्थात् पञ्चचक्रके भीतर कर्मयोग द्वारा जो सब क्रिया करनेकी व्यवस्था है, जिससे भूतशुद्धि होती है, देवयजन करना होता है, नाना प्रकार द्रव्ययज्ञका अनुष्ठान करना होता है, जिससे केवल सुकृति सञ्चय होता हैविभूति लाभ होती है, उन समुदय विषयवटित कर्मयोगका व्यापार को परित्याग करके 'मामेकं शरणं ब्रज' अर्थात् हमारे वचन अनुसार
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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