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________________ ३२४ श्रीमद्भगवद्गीता आशय उत्पन्न होते हैं। लालसाके प्रभावसे यह जो असंख्य बीजस्वरूप जीव उत्पन्न होते हैं वे सब क्लेश, कर्म, विपाक और आशय द्वारा मण्डित हैं, और ईश्वर उन सबसे अस्पृष्ट है। ईश्वरकी दो अवस्थाएं हैं, सगुण और निर्गुण। निगुण अवस्था का नाम ब्रह्म है, तब माया वा इच्छाशक्ति प्रलीन रहती है, जैसे दूध में मक्खन, अर्थात निश्चष्ट अवस्था। सगुण अवस्था सचेष्ट अवस्था है, तब मायाका विकाश होता है; सगुण अवस्था ही ईश्वर है। माया विकाश हो करके विकृत होती है, वह माया-विकार ही २४ तत्त्व और क्लेश-कर्म-विपाक-आशय रूपमें परिणत होता है। माया-विकार द्वारा ईश्वर असंस्पृष्ट है। सगुण अवस्थामें ईश्वर माया-विकाश सहयोगसे माया-विकारोत्पन्न कर्मका फल-विधाता है; वह ईश्वर खुद आप निर्विकार और अव्यय है। जीव ईश्वरकी इच्छासे ही उत्पन्न हुए हैं, सुतरी इच्छामय हैं; उनमें भी स्वतन्त्र स्वाधीन इच्छा बलवती है। जीव अपने स्वतन्त्र स्वाधीन इच्छाको परिचालन करनेके लिये जिस प्रकार कमके सम्पर्कमें आ पड़ता है तदनुरूप फल भोग करता है; उस फलका विधान वह ईश्वर सर्वव्यापी तथा सर्वान्तर्यामी रूपमें अवस्थित होकरके ही करता है। अर्थात् जीव अपनी इच्छासे चल करके भी ईश्वरकी इच्छा वा माया द्वारा अवश होकर कृतकर्मका फल भोगनेमें बाध्य होता है। जब तक जीव अपनी स्वाधीन इच्छासे विषय-मार्ग पर चलेगा, तब तक उसका कर्म सृष्टि होता ही रहेगा और उन कर्मों का फल उसको भोगना ही पड़ेगा। यदि जीव स्वतन्त्रभावको त्याग करके अपनी स्वाधीन इच्छा और लालसाका स्रोत उलटा घुमा कर उस ईश्वरको लक्ष्य करे, उनकी शरण ले, तो उस शरण लेना रूप कर्मफलसे ईश्वरका प्रसाद पावेगा, वह भी ईश्वर-भावप्राप्त होकर प्रकृतिवशी होवेगा स्वामीपद प्राप्त होगा और वह क्लेशकर्म-विपाक-आशयसे असंस्पृष्ट रहेगा। वही शान्ति अवस्था-मुक्ति
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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