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________________ अष्टादश अध्याय ३०६ व्याख्या। अति कठोर संयमके द्वारा ब्रह्मसंस्पर्श सुखका अभ्यास करते करते एक असीम उदारता आश्रय करता है, उससे इस नवद्वार युक्त शरीरमें निवास करके अन्तःकरणके साथ मिल करके इन्द्रियादिका जो कुछ कर्म होता है वह उस उदारतामें और अटक रहनेका स्थान नहीं पाता जैसे रुजु दरवाजामें एकके भीतरसे प्रवेश करके फिर दूसरे दरवाजेसे सीधा निकल जानेके सदृश निकल जाकर अन्तःकरणसे बहुत दूरमें जा पड़ता है। सुतरां अन्तःकरणमें क्रियाशक्तिको उत्पन्न नहीं कर सकता। उस क्रियाशून्य अन्तःकरणमें साधकका जो निरन्तर अवस्थान है, वही नैष्कर्म्यसिद्धि है। ब्रह्ममें जैसे निर्लिप्तता चिरविद्यमान है, उसी प्रकार इस साधकमें भी है। किस किस साधनसे यह निष्ठा-स्थिति होती है, हे कुन्तीपुत्र ! तुमको उन्हें संक्षेपमें कहता हूँ सुन लो। ( ५ म अः १३ श्लोक ) ॥ ५० ॥ बुद्धया विशुद्धया युक्तो धृत्यात्मानं नियम्य च। शब्दादीन्विषयांस्त्यक्ता रागद्वषो व्युदस्य च ॥५१॥ विविक्तसेवी लध्वाशी यतवाकायमानसः। ध्यानयोगपरो नित्यं वैराग्यं समुपाश्रितः ॥ ५२ ॥ अहंकारं बलं दपं काम क्रोधं परिप्रहम् । विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते ।। ५३ ॥ अन्वयः। विशुद्धया ( सात्त्विकया ) बुद्धया युक्तः धृत्या ( सात्त्विक्या ) आत्मानं ( तामेव बुद्धिं ) नियम्प च (निश्चलां कृत्वा ) शब्दादीन् विषयान् त्यक्त्वा रागद्वेषौ च युदस्य (परित्यज्य ), विविक्तसेवो (विजनदेशावस्थायी ) लध्वाशी ( मितभोजी ) यतवाक्कायमानसः ( संयतवाग्देहचित्तो भूत्वा) नित्यं (सर्वदा ) ध्यानयोगपरः ( ध्यानेन यो योगो ब्रह्मसंस्पर्शस्तस्मिस्तत्परः सन्) वैराग्यं ( धानाविच्छेदपथं पुनः पुनः दृष्टादृष्टेषु विषयेषु वैतृष्ण्यं ) समुपाश्चितः ( सम्यगाश्वितो भूत्वा ), अहंकारं बलं दपं कामंोधं परिग्रहं विमुच्य (विशेषण त्यक्त्वा) निर्ममः सन् शान्तः ( परमामुपशान्ति प्राप्तः ) ब्रह्मभूयाय ( ब्रह्माहमिति नैश्चत्येनावस्थानाय ) कल्पते ( योग्योमवति ) ॥५१॥ ५२ । ५३ ॥
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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