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________________ अष्टादश अध्याय ३०३ मेरुदण्डका पर्व समूहको परस्पर दृढ़बद्ध करना होता है, उसके साथ ही साथ छः चक्रमें मन्त्रबीजको यथानियमसे अर्पण (वपन ) करना होता है। यह सब क्रिया ही कृषि है। तत्पश्चात गोरक्ष्य है। गो अर्थ में इन्द्रिय है। इन्द्रिय इग्यारह हैं;-पाँच ज्ञानसाधन, पांच कर्मसाधन, और एक मन। इन सब इन्द्रियोंको संयत भावसे रखना होता है। गुह्य, लिंग और पादको यथा नियमसे आसनके द्वारा संयत करके पाणिको भी ज्ञानमुद्रा द्वारा अथवा गुरूपदिष्ट मतासे अन्य प्रकारसे आबद्ध करके रसनाको उलटकर स्वस्थानमें रखना होता है। ज्ञानेन्द्रियोंके साथ मनको भ्रमध्यमें कूटस्थमें ( ६ अः २६ श्लोक के नियम अनुसार ) वशमें लाके आबद्ध करना होता है। इस प्रकार करनेके बाद देखना होगा कि किसी इन्द्रियमें कष्ट वा यन्त्रणा अनुभूति न हो, क्योंकि "स्थिरसुखमासन"-आसन स्थिर तथा सुखदायक होना चाहिये। किसी स्थानमें यन्त्रणा होते रहनेसे क्रियामें 'विघ्न होता है। सयत्न चेष्टा द्वारा आसनमें दृढ़ अभ्यस्त होना होता है, कारण कि साधनमें आसन ही मातृस्वरूप है। यह गोरक्ष्य हुआ। तत्पश्चात् वाणिज्य है। वाणिज्य प्राणका व्यवसाय है। आत्ममन्त्रसे मिला हुआ प्राणको देवगण बड़ा प्यार करते हैं। साधकको भी भवपारमें जाना होगा; परन्तु अपरिचित देश, रास्ता भी अज्ञानान्धकारसे आच्छन्न हैं, कुछ सहाय सम्बलका प्रयोजन है; इसलिये साधक एक कृपावान् महाजनके (गुरुके ) सहारेसे प्राणमें मन्त्र मलना सीखकर तथा ब्रह्मलोकको जानेका रास्ता-घाटका सन्धान जानकर, निर्दिष्ट दिशामें लक्ष्य स्थिर रखकर मन्त्र मिला हुआ प्राणको लेकर ब्रह्ममागेके छः स्थानोंमें देवतोंके साथ प्राणका व्यवसाय करते रहते हैं। भली वस्तुका भला मोल होता है। जो जैसी कृति है उसकी वस्तु भी वैसी ही होगी। देवगण भले प्राणको पानेसे अधिकसे अधिक सन्तुष्ट होते हैं तथा नियमित रूपसे मन्त्र मला हुआ प्राणको
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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