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________________ अष्टादश अध्याय २६६ है। उस प्रवाहको पुनः अन्तमुख करनेकी चेष्टामें पहले पहल बहुत ही आयास स्वीकार करना पड़ता है, यह सुखसे नहीं होता; और प्रथम प्रथम यह चेष्टा ठीक भी नहीं होती। विषयाकर्षणसे टक्कर खाके बाहर आना पड़ता है। उसी प्रायासको उसी विधिरहित चेष्टाको ही 'दोष' कहा हुआ है। इसलिये श्रीभगवान अर्जुनको कहते हैं कि, सदोष होनेसे भी सहज कर्म (अन्तमुखमें प्राणचालन ) को त्याग करना न चाहिये; क्योंकि कोई काज भी प्रारम्भकालमें निर्दोष नहीं होता वरन् दोषाच्छन्न रहता है, जैसे अग्नि उत्पन्न काल में धूमाच्छन्न रहती है। ___ यह तो सीधी बात हुई। श्रीमत् शंकराचार्य जी कहे हैं कि सहज कर्म ही स्वधर्म है और श्रीधर स्वामी कहे हैं कि स्वभावविहित कर्म ही सहज कर्म है। ४२ श्लोक से ४८ पर्यन्त श्लोकमें चार वर्गका प्रविभक्त कर्म और उन्हीं कर्मों के फलविधानके परिचयसे देखने में आता है कि स्वभावज कर्म, स्वकर्म, स्वधर्म और सहज कर्म एकही वस्तु के विभिन्न नाम मात्र हैं। अब देखना होगा कि ब्रह्मकर्म, क्षात्र-- कर्म इत्यादि चार वर्णके स्वभावज कमको सहज कर्म क्यों कहा जाता है। ___ श्रीधर स्वामी कहे हैं कि स्वभाव विहित कर्म ही सहज कर्म है । देखा जाता है कि, मनुष्योंके स्वभाव ( शरीर-मनकी अवस्था ) का परिवर्तनके साथ ही साथ प्राण-क्रियाका भी परिवर्तन होता है, अर्थात् मनुष्योंका स्वभाव ( शरीर-मनको अवस्था ) जब जिस प्रकार होता है, प्राणक्रिया भी उसी की अनुगामिनी होती है; मानो उसके साथही साथ नवीन जन्म लेती है। इसीलिये स्वभावविहित कर्मको सहज कर्म कहते हैं। स्वभावानुगामी प्राणकर्म तात्कालिक दोषाश्रित होनेसे भी उसे त्याग करना न चाहिये क्योंकि त्याग करनेसे बिन होगा। जैसे शोकावेगमें भीतर ही भीतर वायुवेग इतना
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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