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________________ २६० श्रीमद्भगवद्गीता स्वीकार आप ही आपसे जिनके अन्तःकरणमें प्रकाश पावेगा, वे ही ब्राह्मण कह करके अपनेको मान लेंगे, और उनको इन्हीं सब पाचरणोंसे मुक्तिलाभ होगा॥ ४२ ॥ शौय्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्य युद्धे चाप्यपलायनम् । दोनमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम् ॥४३॥ अन्वयः। शौय्यं ( पराक्रमः ) तेजः (प्रागल्भ्यं ) धृतिः (धयं ) दाक्ष्य (कैशलं ) युद्धच अपि अपलायानं ( अपराङ मुखता ) दानं (औदार्य ) ईश्वरभावश्च (नियमनशक्तिह) स्वभाव क्षात्रं कर्म ( क्षत्रियस्य स्वाभाविकं कर्म ) ।। ४३ ॥ अनुवाद। शौर्य, तेज, धृति, दक्षता, युद्ध में अपलायन, दान और ईश्वरभाव ये सब क्षत्रियों के स्वाभाविक कर्म हैं ॥ ४३ ॥ व्याख्या। आठों पहर लड़े सो शूरा। अर्थात् अष्ट प्रहर युद्ध (क्रिया ) करनेसे भी जो शक्ति क्लान्त होने नहीं देती, उसी महाशक्तिका नाम शौर्य है। तेजः-शत्रुतापन शक्ति, ( ससैन्य प्रकृतिको अपने वशमें लाना)। जिस शक्तिसे अवसाद मात्र नहीं आता है, वही धृति वा धारणावती शक्ति है, ( आज्ञाचक्रके ऊपर उठ कर परम शिवमें अविच्छेद कर लक्ष्य स्थिर रखना। कारणके साथ कार्यका परिणाम फल प्रत्यक्षवत् हृदयमें विद्यमान रहना ही दक्षता है। युद्धक्षेत्रमें चाहे जैसी अवस्था आ पड़े, उससे विमुख न होकर सम्मुखीन रहना ही अपलायन है, (आज्ञाचक्रसे मूलाधारमें उतर आना, पुनः सामने उठ जाना, बांसकी सीढ़ीमें मजूरोंके चढ़ने उतरनेके सदृश है )। दान - त्याग स्वीकार। और वेद-ईश्वरमें विश्वास, अर्थात् प्रभुत्व स्वीकार करण और प्रभुत्व स्वीकार करवानेका भाव। यह सब कर्म क्षत्रियों के स्वभावज हैं। इन सबके आचरणसे ही उनकी ऊर्ध्वगति होती है ॥४३॥
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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