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________________ अष्टादश अध्याय २८७ व्याख्या। हे अर्जुन ! यह जो संसार-वृक्षका रूपक कल्पनामें ऊर्ध्वमूलादि कहा हुआ है, जिसको दृढ़ असंग शस्त्रसे छेदन करने होता है, इस भुवन-कोषमें भूरादि सत्यलोकका प्रत्येक स्वर्ग में प्राणिजात वा 'अप्राणिजात ब्रह्मादि देवता, मानुष, ऐसे कि स्थावरान्त पर्य्यन्त जो कुछ है, सो सबही गुणमयी प्रकृतिके गुण-विकारसे उत्पन्न है। किसी स्थानका कहीं ऐसा कुछ नहीं है जो इस सत्त्व, रज और तमको परित्याग करके वा उनसे पृथक् होकर रह सकता है। त्रिगुणके कोई एकके अति सूक्ष्मांश भी रहनेसे संसार-कारण-निवृत्तिकी प्राप्ति नहीं होती। सर्ववेद श्रुति स्मृतिका एक ही उपदेश जानना ॥४०॥ ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणान्च परन्तप । कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैगुणैः ॥ ४१ ॥ अन्धयः। हे परन्तप.! ब्राह्मणक्षत्रियविशां (ब्राह्मणानां क्षत्रियानां वैश्यानां च ) शूद्राणां च कर्माणि स्वभावप्रमः ( पूर्वजन्मसंस्कारप्रादुर्भूतैः ) गुणैः प्रविभक्तानि ॥४१॥ अनुवाद। हे परन्तप ! ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्यादियोंका तथा शूद्रोका कर्म समूह स्वभाव-प्रभव गुणोंके द्वारा प्रविभक्त हैं ॥ ४१ ॥ व्याख्या। अगर क्रिया, कारक, फल प्रभृति तथा प्राणिजात सब ही त्रिगुणात्मक हैं तो जीवकी मुक्ति कैसे हो सकती है ? अर्जुन इस प्रकार प्रश्न न कर सकें इस संकल्पसे भगवान से भी कह देते हैं; कहते हैं कि, स्व स्व अधिकारके विहित कर्म समूहके द्वारा परमेश्वरकी आराधना करनेसे तत्प्रसादलब्ध ज्ञानसे मोक्ष होती है। यही सर्वगीतार्थसार है। यही सारसंग्रह इस श्लोकका "ब्राह्मण क्षत्रिय विशा" से प्रारम्भ करके अध्यायकी समाप्ति पर्यन्त दिखाया हुआ है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रोंका सकल कर्म पृथक् पृथक् रूपसे विभाग किया हुआ है। यह विभाग स्वभाव-प्रभव गुण द्वारा किया
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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