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________________ २८२ श्रीमद्भगवद्गीता व्याख्या। हे पार्थ! जिस बुद्धिसे धर्मको अधर्म, अधर्मको धर्म, ऐसे हो सब जानने के विषयोंको विपरीत ज्ञानसे समझा देती है, ऐसी अज्ञानाच्छन बुद्धिको तामसी बुद्धि कहते हैं ॥ ३२ ॥ धृत्या यया धारयते मनःप्राणेन्द्रियक्रियाः। योगेनाव्यभिचारिण्या धृतिः सा पार्थ सात्त्विकी ॥३३॥ अन्वयः। हे पार्थ ! योगेन (चित्त काग्रयण हेतुना ) अव्यभिचारिण्या (विषयान्तरमधारयन्त्या ) यया धृत्या मनःप्राणेन्द्रिय क्रियाः (मनसः प्राणस्य इन्द्रियाणाञ्च क्रियाः) धारयते ( नियच्छन्ति ), सा सात्त्विकी धृतिः ।। ३३ ॥ अनुवाद। हे पार्थ ! चित्त काग्रय हेतु अव्यभिचारिणी, जिस धृतिके द्वारा मन, प्राण और इन्द्रियों की क्रिया समूह धृत ( नियमित ) होती हैं, उसीको सात्त्विकी धृति कहते हैं ॥ ३३॥ व्याख्या। मैं जो जीव बन करके इस जगत-प्रपळचमें मतवाला हो रहा हूँ, मेरा मेरा करता हूँ, मेरा यह भाव जागतिक भाव है, और जिसमें "मेरा" शब्द न चले, केवल "मैं" ही मैं, वही मेरा विस्तार ब्रह्मभाव है। इन दोनों भावोंके एकत्रीकरणका नाम “योग” है। गुरूपदिष्ट क्रियासे मेरा इस संकीर्ण जागतिक भावको समेट करके विस्तार “मैं” में मिलाकर मन, प्राण और इन्द्रियोंकी क्रिया समूहका निरोध करके जो अव्यभिचारी ( निष्पन्दन ) स्थिति है, उस स्थितिकी परिपाकको अर्थात् उसमें अधिक समय तक अटक रहनेको सात्त्विको धृति कहते हैं ॥३३॥ यया तु धर्मकामार्थान् धृत्या धारयतेऽर्जुन । प्रसंगेन फलाकांक्षी धृतिः सा पार्थ राजसी ॥ ३४ ॥ अन्वयः। हे पार्थ ! हे अर्जुन ! तु ( किन्तु ) यया धृत्या धर्मकामार्थान् धारयते (न विमुञ्चति ) प्रसंगेन ( यप्य यस्य धर्मादेः धारणप्रसंगस्तेन तेन प्रसंगेन ) फलाकांक्षी ( च भवति ), सा राजसी धृतिः ॥ ३४ ॥
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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