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________________ सप्तदश अध्याय २५६ दानमें जो स्थिति है वह भी सत् कह करके कथित होती है; तदर्थीय (भगवत् प्रोत्यर्थ अनुष्ठित ) कर्म भी सत् कह करके कथित होता है ॥ २६ ॥ २५॥ . . व्याख्या। सत्भाव और साधुभाव, ये दोनों एक ही वस्तु है; स- क्षीण श्वास, आ आसक्ति, ध-धृति, और उ= स्थिति; सूक्ष्मश्वासमें आसक्ति देनेसे स्थिति जब धारणा हो जाती है, तब ही साधु शब्दका अर्थ खुलता है। इसलिये सद्भाव वा साधुभाव कहनेसे कैवल्य स्थितिको समझाता है। और उस प्रकार स्थितिके लिये जो कर्म ( मुक्तिमार्गमें वायु-चालन ) है, हे पार्थ! उसे भी सत् नाम देते हैं। उसी तरह यज्ञ, तप और दानमें जो स्थिति होती है, चचलता मात्र नहीं रहती है उसे भी सत् कहते हैं; और उस यज्ञ, तप और दानके लिये जो (ब्रह्ममार्गमें ) वायुका चालन होता है बह भी सत् समाजमें सत् शब्दसे अभिहित होता है ॥ २६ ॥२७॥ अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतश्च यत् । असदित्युच्यते पार्थ न च तत् प्रेत्य नो इह ॥२८॥ अन्वयः। हे पार्थ । अश्रद्धया हुतं ( हवनं ), दत्त ( दानं ), तपस्तप्तं (निर्वत्तितं ), यत् च ( अन्यदपि) कृतं तत् असत् इति उच्यते, (यतः ) तत् न च प्रेत्य ( लोकान्तरे न फलति विगुणत्वात् ) नो इह (न चास्मिन् लोके फलति अयशस्करत्वात् ) ॥ २८ ॥ अनुवाद। हे पार्थ ! अश्रद्धासे हुत यज्ञ, प्रदत्त दान, निवंतित तपः, और दूसरे जो कुछ कृत हों वे सब ही असत् कह करके कथित होते हैं ( कारण कि ) वे (विगुणत्व हेतु ) न लोकान्तरमें फल प्रदान करते हैं और ( अयशस्करत्व हेतु) न इस लोकमें फल प्रदान करते हैं ॥ २८ ॥ व्याख्खा। हे अर्जुन ! जिस होम, दान तपके जड़में ही अविश्वास (जैसे हमारा होम यज्ञमें विश्वास नहीं, परन्तु घर की स्त्रियों
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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