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________________ श्रीमद्भगवद्गीता व्याख्या। जिस यज्ञमें श्रद्धाके साथ भोजनादि तृप्तिकर व्यवस्था नहीं, जिस यज्ञमें मन्त्रादिसे आहुति नहीं, जिसमें दक्षिणाकी व्यवस्था नहीं, केवलमात्र आतिशबाजी जलाकर वुड़वकीया गुलमचाना है, . वैसे वैसे कार्यको तामस यज्ञ कहते हैं ॥ १३ ॥ देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमाजवम् । ब्रह्मचर्य्यम हिंसा च शारीरं तप उच्यते ॥ १४ ॥ अन्वयः। देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचं आजवं ब्रह्मचर्य अहिंसा च शरीरं तपः उच्यते ॥ १४ ॥ अनुवाद। देव, द्विज, गुरु और प्राज्ञ पुरुषोंको पूजा, शौच, सरलता, ब्रह्मचर्य तथा अहिंसा-इन सबको शारीरिक तप कहते हैं ॥ १४ ॥ व्याख्या। ब्रह्ममार्गसे पीछे हट करके जब देवतोंका, गुरुमूर्ति का, ऋषियोंकी मूर्तिका दर्शनसे तन्मयीभावमें मिल करके रहा जाता है, तब ही देव, गुरु तथा प्राज्ञ पूजन होता है। और जब अपनी मूर्तिके दर्शनसे विभोर हो करके मिल जाता हूँ, तब ही द्विजपूजन होता है। उस समयमें स्थूल शरीरका कुछ भी भान नहीं रहता, तथापि आत्ममूत्ति में आसक्ति रहनेके कारण द्विज कहते हैं। एक जन्ममें जिनके दो जन्म होते हैं वे ही द्विज हैं, जैसे रेशमकीट और उस कीटका प्रजापति ( पतङ्ग) है। इस अवस्थामें मन एक वस्तुको लेकर बैठ रहता है। वह जो स्थिति है उसीको शौच कहते हैं। सरलता ही सरलता भासमान रहता है इसलिये आर्जव है। शुक्रधातु शीतल रहनेसे ब्रह्मचर्य होता है। उस समय मन पर-पीड़न करने का उद्वग नहीं लेता, इसलिये अहिंसा है। इस अवस्थामें सर्व विषयसे साधककी शरीर-पालन क्रिया अक्षुण्ण रहती है, इसलिये इस · अवस्थाको शारीरिक तप कहते हैं ॥ १४ ॥
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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