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________________ २५० श्रीमद्भगवद्गीता अनुवाद। जो यातयाम ( एक प्रहर पूर्वके रन्धन किया हुआ), निरस, दुर्गन्ध, पर्युषित ( बासी ), तथा उच्छिष्ट और अमेध्य ( अभक्ष्य ) है, इस प्रकारके भोजन ही तामसी मनुष्योंके प्रिय खाद्य हैं ॥ १० ॥ व्याख्या। यातयाम = एक प्रहर काल अतीत हुई रसोई । गतरस रसहीन सुखा भात, सुखी हुई रोटी आदि । पूति= सड़ा हुआ, दुर्गन्ध विशिष्ट खाद्य; अचार आदि। पर्युषित =दूसरे रोजको पकाई हुई रसोई (बासी)। उच्छिष्ट = भूक्तावशिष्ट (जूठा )। अमेष्य = अपवित्र, दुष्पाच्य। यह समस्त तमोगुणी लोगोंके प्रिय खाद्य हैं । शरीरमें जब जो गुण वर्तमान रहेगा, तब उसीके अनुसार खाद्यमें रुचि उत्पन्न होगी, जानना ॥१०॥ अफलाको क्षिभिर्यज्ञो विधिदिष्टो य इज्यते । यष्टव्यमेवेति मनः समाधाय स सात्त्विकः ॥ ११ ॥ अन्वयः। अफलाकाक्षिभिः ( फलाकांक्षारहितैः पुरुषैः ) यष्ठव्यं एष (वज्ञानुष्टानमेव कायं नान्यत् फलं साधनीयं ) इति ( इत्येवं ) मनः समाधाय ( एकानकृत्वा ) विधिदिष्टः ( शास्त्रविहितः ) यः यज्ञः इज्यते ( अनुष्ठीयते ) सः सात्त्विकः ( यज्ञः) ॥११॥ अनुवाद। फलाकांक्षारहित पुरुषगण “यज्ञानुष्ठान ही कर्तव्य" है इस प्रकारके भावमें मनको एकाग्र करके शास्त्रविहित जिस यज्ञका अनुष्ठान करते हैं, उसीको सात्त्विक यज्ञ कहते हैं ॥११॥ व्याख्या। ब्रह्मनाड़ीके भीतर वायु चालन करनेके समय जब समस्त ( सर्व नाम करके कथित जो कुछ है ) मिट जाता है तब ही फलको आकांक्षा नहीं रहती। इसीको ब्रह्मयज्ञ, अर्थात् ब्रह्माग्निमें मायाकी आहुतिकरणरूप यज्ञ कहते हैं। गुरुका उपदेश चाहिये, और वह उपदेश भी शास्त्रसम्मत होना चाहिये, फिर उसको अपने शरीर के भीतर अनुभव प्रत्यक्ष करना चाहिये, इन तीनोंके एकत्र समावेश
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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