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________________ २३७, षोडश अध्याय कुछ भी बाकी रहना या कुछ भी सन्देह रहना, ऐसा कुछ भी नहीं रहता। मन उस विषयमें एकदम निःसन्देह स्थिरनिश्चय हो जाता है। उस वाणीकी ऐसी ही शक्ति है । अतएव कार्याकार्य व्यवस्था वा कर्तव्याकर्त्तव्य निरूपण करना हो तो, साधक ! तुम वायुरूपी शास्त्र का आश्रय लो; शास्त्र ही तुमको प्रमाण कर देगा, निश्चय रूपसे कह देगा, कौन कर्त्तव्य और कौन अकर्तव्य है। वायुरूपी शास्त्र ब्रह्मपथको परिष्कार रूपसे दिखला करके तुम्हें ब्रह्माण्डका ज्ञान दे देगा। . कार्याकार्य व्यवस्थामें शास्त्र ही जो प्रमाण वा निश्चयका हेतु है उसे निर्धारण करनेका और भी एक उपाय है । रजः सत्त्व तमः यह तीन गुण और क्षिति, अप, तेज, मरुत् , व्योम इन पांचों तत्वोंकी क्रिया शरीरके भीतर सब समय एकरस बराबर समान नहीं रहती। एक . एक समय एक एक गुण और एक एक तस्वकी क्रिया प्रबल रहती है। प्रत्येक गुण और तस्व कर्मका भिन्न भिन्न फल उत्पन्न करता है। कोई कार्य करनेके समय उस कार्यका फलाफल पहिले जान लेकर कत्र्तव्या * जिस प्रकार शास्त्रज्ञ न होनेसे शास्त्र ( पोथियां ) खोल करके कोई एक विषय प्रमाण किया वा मीमांसा किया नहीं जा सकता, तब शास्त्रज्ञ अध्यापकके पास जा करके शास्त्रका प्रमाण जानकर समझ लेना पड़ता है। उसी प्रकार साधक जितने दिन शास्त्रज्ञ न हो सकते, अर्थात् वायुरूपी शास्त्रको जानकर बूझकर अपने आयत्तमें ला नहीं सकते हैं, उतने दिन साधक प्राण खुल करके अपने अन्तरके भीतर अपने जाननेका विषय देख लेकरके निःसन्देह हो नहीं सकते, उतने दिन गुरुवाक्य ही 'उनका शास्त्र है, गुरुवाक्य ही उनके लिये कार्याकार्य व्यवस्थामें प्रमाण स्वरूप. है। गुरुके मुखका वचन और अन्तरकी वही अशरीरो वाणी एक बिना दो नहीं ; उस अशरीरी वाणीको भी गुरुवाक्य कह करके जानना। क्योंकि वह वायुको ही क्रिया है। वायुही गुरु है। अग्नि द्विजातिका गुरु है, इसलिये उपनिषदें प्राण समूह को अग्नि कहके वर्णन किया है-"प्राणाग्नय एतस्मिन् पुरे जाग्रति"। जगत् भो प्राणमय है- "प्राणोहि भगवानीशः प्राणोविष्णुः पितामहः। प्राणेन धार्यते लोकः सर्व प्राणमयं जगत्" ॥ २४ ॥
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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