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________________ षोड़श अध्याय २३३ नहीं रहता। इसलिये प्रथम साधनमें शास्त्र-विधि त्याग करके जो स्वेच्छाचारी होते हैं, वे भ्रान्त हैं, उनको सिद्धि, सुख, परागति कुछ भी प्राप्ति नहीं होती। षट्चक्रकी क्रिया ही वेदका कर्मकाण्ड और सहस्रार-क्रिया हो ज्ञानकाण्ड हैं। इन दोनों काण्डको साधन द्वारा अतिक्रम न करनेसे गुणातीत निस्त्रगुण्य पद नहीं मिलता। घोड़ेको लांधकर घास खाया नहीं जाता। ३य अ: ११११२वां श्लोककी व्याख्यामें प्राणक्रियाके नियमकी व्याख्याकी हुई है। यहां संक्षेपसे केवल इतना ही कहनेसे होगा कि शरीरके भीतर वायु खींचनेके समय अर्थात् प्रश्वास ग्रहण करनेके समय बाहरवाले आकाशकी विमल वायुको नासारन्ध्र और गलगहर देके वायुपथसे मूलधारमें लाकर उस वायुके साथ साथ गुरूपदिष्ट चित्तपथमें उठकर शक्ति समूहको प्रबोध देते हुए परम शिवमें कुलकुण्णलिनीको मिला करके फिर विपरीत क्रियामें निःश्वास त्यागके साथ "उस वायुको बहिराकाशमें स्थापन करनेको शास्त्रविहित कर्म कहते कहते हैं। इस क्रियाकी संख्या अहोरात्रमें २१६०० बार है। इस विधिसिद्ध क्रियाको परित्याग करके कामाकारा वृत्ति लेके स्वेच्छाचारी हो करके प्रश्वास और निःश्वासका अपव्यवहार जो लोग करते हैं, वे लोग सिद्धि (प्राप्तिकी प्राप्ति ), सुख (ब्रह्मानन्द ), परागति (ब्रह्ममें 'लय ) कुछ भी नहीं पाते ॥ २३ ॥ तस्माच्छास्त्रं प्रमाणन्ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ। ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कत्त मिहाहसि ॥ २४ ॥ अन्वयः। तस्मात् कार्याकार्यव्यवस्थितौ । (कर्तव्याकर्तव्यन्यवस्थायां) ते ( तव ) शास्त्रं (श्रुत्यादिकमेव ) प्रमाणं (ज्ञानसाधनं ); इह ( कर्माधिकारभूमौ ) शास्त्रविधानोक्तं कर्म ज्ञात्वा कत्तु अर्हसि ॥ २४ ॥
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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