SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 235
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२६ श्रीमद्भगवद्गीता पतित होते हैं ( जन्म लेते हैं )। यह सब वृत्ति ही चित्तकी निम्नस्तरमें संसार-नरक मोगका खेल है ॥ १३ ॥ १४॥ १५ ॥ १६ ॥ आत्मसम्भाविताः स्तब्धा धनमानमदान्विताः। यजन्ते नामयज्ञैस्ते दम्भेनाविधिपूर्वकम् ॥ १७ ॥ . अन्वयः। आत्मसम्भाषिताः (आत्मनैव सम्भाषिताः पूज्यता नीता न तु साधुभिः ) स्तब्धाः ( अनम्राः) धनमानमदान्विताः ( धनेन यो मानो मदश्च ताभ्यां समन्विताः ) सन्तः ते ( आसुराःजनाः ) दम्भेन ( धर्मध्वजितया ) नामयज्ञः (नाममात्रैः यज्ञ: ) अविधिपूर्वकं यजन्ते ॥ १७॥ अनुवाद। आपही आप पूज्यताको प्राप्त, अनम्र तथा धनजनित मान और मद्रयुक्त हो करके वे लोग दम्भके साथ नाम मात्र यज्ञ द्वारा अविधिपूर्वक यजन करते हैं ॥ १७ ॥ व्याख्या। वे सब आसुर लोग मानते हैं कि सर्वगुणान्वित मेरे बिना और किसीने भी आज तक जन्म नहीं लिया। धनकी गर्मीसे वह लोग गुरुको भी नहीं मानते, किसीके सामने सिर झुकाने नहीं चाहते। यज्ञका प्रारम्भ करते हैं, परन्तु लोगोंको दिखलाकर अपना नाम बढ़ानेके लिये; श्रद्धा सहकार नहीं करते। अहंकारके वश उन सबका यज्ञ विधिपूर्वक नहीं होता। यज्ञका विहित अङ्ग जो साविकता है, उसे नष्ट करके नाममात्रके लिये वृथा यज्ञ-कर्ता बनते हैं ॥ १७॥ अहंकारं बलं दर्प कामं क्रोधं च संश्रिताः। मामात्मपरदेहेषु प्रद्विषन्तोऽभ्यसूयकाः ॥ १८ ॥ अन्वयः। ( यतः.) अहंकारं बलं दपं काम क्रोधं च संश्रिताः सन्तः अभ्यसूयकाः ( सन्मार्गवत्तिनां गुणेषु दोषारोपकाः ते आसुराः जनाः ) आत्मपरदेहेषु ( आत्मदेहे परदेहेषु चिदंशेन स्थितं ) मा प्रद्विषन्तः [यजन्त इति पूर्वेण सम्बन्धः ] ॥१८॥
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy