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________________ २१८ श्रीमद्भगवद्गीता वेकः ) च एव-एतानि आसु सम्पदं ( असुराणां राक्षसानां च या सम्पत्तिस्ता ). अभिजातस्य ( अभिलक्ष्य जातस्य ) भवन्तोत्यर्थः॥४॥ अनुवाद। दम्भ, दर्प अभिमान, क्रोध निष्ठुरता और अधिवेक यह सब आसुरी सम्पद भमिमुखमें जात मनुष्यका होता है ॥ ४॥ व्याख्या। "दम्भ”–अपने सम्मानकी लालसामें धार्मिकता दिखलाना वा दूसरेको वचना करनेके लिये काम काजका अनुष्ठान करना। "दर्प”–अहंकारका भाव दिखलाना। "अभिमान”–धन, विद्या, कुल, श्रात्मीय आदिके सम्बन्धमें अत्यल्प दुःख, क्षोभ, अनादर वा अपमान बोध होनेसे अत्यधिक भाव दिखलाना। कामना प्रतिहत होनेसे अन्तःकरणमें जिस वृत्तिका उदय हो उसीको “क्रोध" कहते हैं। "पारुष्य"-रूढ़ता (कर्कशता)। जो जैसा है उसके विपरीत बोधनका नाम “अज्ञानता" है। हे अर्जुन ! आसुरी सम्पद अभिमुखमें जात अन्तःकरणमें यही सब रहता है ॥ ४॥ दैवी सम्पद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी मता। मा शुचः सम्पदं देवीमभिजातोऽसि पाण्डव ॥५॥ अन्वयः। दैवी सम्पद् विमोक्षाय आसुरी ( सम्पद् ) निबन्धाय मता। हे पाण्डव ! माशुचः (शोकं मा कार्षां), यतस्त्वं देवीं सम्पदं अभिजात असि ॥ ५॥ अनुवाद। देवी सम्पद् मोक्षके निमित्त और आसुरी सम्पद बन्धनके निमित्त है। हे पाण्डव ! शोक न करना, तुम दैवी सम्पद अभिसुखमें जन्म लिये हो ॥ ५॥ व्याख्या। देवी-सम्पद्-जात जीव मुक्तिको पाते हैं। और आसुरी-सम्पद्-जात जीव बन्धनमें फंसते हैं। इस समय साधकके अन्तःकरणमें "मैं कौन सम्पमें जात हूँ" यह प्रश्न उठनेसे साधक पापही आप आत्मबोधसे अपने प्रश्नका उत्तर देते हैं; हे पाण्डव ! शोक करनेका कोई प्रयोजन नहीं है। (इस स्थानमें अर्जुनका प्रथम अध्यायवाला विषाद अब दूर हुआ)। तुम देवी-सम्पद्-जात हो,. प्रतएव तुम्हारी मुक्ति अनिवार्य है ॥५॥
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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