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________________ २१० श्रीमद्भगवद्गीता जिसे चूसके खाया जाता है, लेह्य-जिसे लेहन (चाट) करके खाया जाता है, पेय-जिसे पीके खाया जाता है, इन चार प्रकारके खाद्य द्रव्यको परिपाक करते हैं। इसलिये यह वैश्वानर अग्नि प्राणीमात्रके देहके आश्रय है । वह अग्नि देहमें सर्वन ताप-संचालन करके जीवनीशक्तिकी रक्षा करती है। अग्नि विकृत होनेसे देह भी विकृत होता है, और अग्निका देहको छोड़ देनेसे देह भी मृत होता है। योगीगण सदाकाल "प्राणापानौ समौ कृत्वा” इस वैश्वानरके तृप्ति साधनके लिये अग्निहोत्र पालन करते हैं ॥ १४ ॥ सर्वस्य चाह हृदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च । वेदश्च सर्वरहमेव वेद्यो वेदान्तकृत् वेदविदेव चाहम् ॥ १५ ॥ अन्वयः। अहं सर्वस्य च ( प्राणिजातस्य ) हृदि ( बुद्धौ ) सन्निविष्टः, ( अतः ) मत्तः ( एव प्राणिमात्रस्य ) स्मृतिः ज्ञानं अपोहनं च ( तयोः ज्ञानस्मृत्यो अपगमनं च) भवतीत्यर्थः; सबै वेदश्च अहमेव ( परमात्मा ) वेद्यः ( वेदितव्यः ), अहमेव वेदान्तकृत् ( वेदान्तार्थ-सम्प्रदायकृत् ) वेदवित् च ( वेदार्थवित् च ) ॥ १५ ॥ अनुवाद। मैं सब प्राणियोंके हृदयमें सम्यक् रूपसे निविष्ट हूँ, हमसे ही ( प्राणिमात्रकी) स्मृति, ज्ञान और ( इन दोनोंका ) अपगम होता है; सब वेदमें मैं ही वेद्य ( जाननेका वस्तु ), वेदान्तार्थ सम्प्रदायकृत् , और वेदार्थवित् हूं ।। १५ ॥ व्याख्या। सर्व कहनेसे जिन सबको समझावेगा, उन सबकी दो अवस्थायें हैं। एक संघात और दूसरी विलय । इन दोनों अवस्थाओं को विवेक और विचार द्वारा तन्न तन्न करके चले आते आते जहां वह तन्न और न लगेगा, उसीको ठोक मध्य स्थान वा हृदय कहते हैं । "यतो निर्याति विषयो यस्मिन् चैव प्रलीयते । हृदयं तत् विजानीयात् मनसः स्थितिकारणम् ॥” जहाँसे विषय निकलता है, जहां जा करके
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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