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________________ २०४ श्रीमद्भगवद्गीता आप लोप हो जाते हैं और जल सूख जानेसे सूर्यका बिम्ब सूर्यमें मिल जाता है, और फिर लौट नहीं आता, तैसे प्राकृतिक तरंग मिट जानेसे जीवका बहुभाव भी मिटकर एक भाव आता है, और प्रकृतिके लय होनेसे जीवरूप बिम्ब उसी परमात्मामें मिल जाता है और पुनरावत्तन नहीं करता। अब बात यह है कि जो अवधिरहित महान है उसका अंश किस प्रकारसे होता है ? तुम "केवल-राम” हो; परन्तु रासधारीकी रामलीलामें जब तुम हनुमान बनकर अभिनय करते हो, तब तुम्हारे देखनेवाले बन्धु बान्धव और तुम अपने केवल-रामत्वको अन्त:करणमें न लेकरके जैसे हनुमान और हनुमानका दर्शन कथन श्रवण करनेका सुख अनुभव करते हैं और करते हो, यह भी तैसे ही है। जैसे घरकी दीवार तोड़नेसे घरके भीतरवाला खण्डित आकाश बोध नष्ट हो करके एक महाकाशका बोध होता है, तैसे। आकाशवत् मैं अखण्ड जैसे, मैं चिरकाल से ही हूँ। प्रकृति के तीनों गुण, ज्ञानेन्द्रिय और मनके साथ मिल करके इन्द्रधनुषाकार सदृश “मैं” में नाना प्रकार आकार दिखला देता है। इस कारण करके अखण्ड “मैं” का खण्ड साजसे ब्रह्माण्डमें जीवका मेला होता है। थोड़ा समय पहिले यही तुम "मैं” रहे थे, फिर अब वही "तुम” मैं हुए, तथापि कुछ भी अदलबदल नहीं हुआ; यही तमझ लेओ और क्या ! ॥ ७॥ शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युतूकामतीश्वरः। गृहीत्वतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात् ॥ ८॥ अन्वयः। ईश्वरः ( देहादीनां स्वामी जीवः) यत् ( यदा ) शरीरं (शरीरान्तरं) अवाप्नोति यत् च अपि ( शरीरं) उत्कामति (त्यजति) तदा आशयात् ( स्वस्थानात् कुसुमादेः सकाशात् ) गन्धान गृहीत्वा वायुः इव एतानि ( मनःपष्ठानि इन्द्रियाणि ) गृहीत्वा संयाति ( गच्छति ) ॥८॥
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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