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________________ फचदश अध्याय २०१ में आ पहुंचनेसे और पुनः संसार-गति नहीं होती। तुमही यह अनादि पुरुष “मैं” हो, जिस मैं से वह देखो पुराणी महामाया प्रवृत्तिकी प्रसारण करती है। यह पथ ही मुमुक्षु साधकोंके अन्वेषण योग्य है ॥३॥४॥ निर्मानमोहा जितसंगदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः। द्वन्द्व विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञ गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत् ॥५॥ अन्वयः। निर्मानमोहाः ( मानमोहव जिताः ) जितसंगदोषाः (जितः पुत्रादिसंगरूपो दोषो येस्ते) अध्यात्मनित्याः (परमात्मस्वरूपलोचने तत्पराः) विनिवृत्तकामाः (विशेषेण निवृत्तः कामो येम्यस्ते ) सुखदुःखसंज्ञः द्वन्द्वः विमुक्ताः ( सुखदुःखसंज्ञानि शीतोष्णादीनि द्वन्द्वानि तैविमुक्ता8) अतएव अमूढाः (निवृत्ताविद्याः सन्तः ) तत् अव्ययं पदं गच्छन्ति ॥५॥ अनुवाद । जो साधकगण मान तथा मोह वजित हुए हैं जो लोग पुत्रादि -संग रूप दोषको जय किये हैं, जो लोग परमात्म स्वरूप आलोचनमें तत्पर हैं, जिनकी कामनाने विशेष रूप निवृत्ति पायी है, जो लोग सुख दुःख नाम करके द्वन्द्वसे विमुक्त हुए हैं, वे सब अमूढ़ ( अविद्या परिशून्य ) हो करके उसी अव्यय पदको प्राप्त होते हैं ॥ ५ ॥ व्याख्या। “क्रिययोरन्तरं युक्त विश्रामो मानमुच्यते।"-एक क्रियाकी समाप्ति हुई, भविष्यत्में और एककी आशा है, इन दोनोंके बीचमें जो विश्राम, वही मान है; और विश्वजगतकी समस्त क्रियाके शेषमें जो विश्राम है उसीको "निर्मान" कहते हैं। मैं को छोड़कर और किसीमें “मैं” त्व स्थापन करके जो अज्ञानता में मतवाला होके रहना, वही मोह है। "मम माता मम पिता ममेयं गृहिणी गृहं । एतदन्यं ममत्वं यत् स मोह इति कीर्तितः॥" और सत्य “मैं” में रहनेका नाम “निर्मोह" है।
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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