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________________ १६२ श्रीमद्भगवद्गीता माञ्च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते । स गुणान् समतीत्यैतान् ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥ २६ ॥ ब्रह्मणोहि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च । शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च ॥ २७॥ . अन्वयः। यः मां च ( परमेश्वरं ) अव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते, सः एतान् गुणान् समतीत्य ( सम्यगतिक्रम्य ) ब्रह्मभूयाय ( मोक्षाय ) कल्पते ( समर्थों भवति ), हि ( यस्मात् ) अहं ब्रह्मणः प्रतिष्टा ( प्रतिमा घनीभूतं ब्रह्म वाहं ) तथा अव्ययस्य (नित्यस्य ) अमृतस्य च ( मोक्षस्य ) शाश्वतस्य धर्मस्य च, ऐकान्तिकस्य ( अखण्डितस्य ) सुखस्य च ( प्रतिष्ठा अहं परमानन्दरूपत्वात् ) ॥ २६ ॥ २७॥ अनुवाद। जो साधक मेरी ही अनन्य भक्तियोग द्वारा सेवा करते हैं, वे इन समस्त गुणोंको सम्यक् अतिक्रम करके ब्रह्मस्वरूप लाभ करनेमे समर्थ होते हैं, क्योंकि मैं ब्रह्मकी प्रतिष्ठा ( प्रतिमा ), तथा अव्यय का और अमृतका, शाश्वतधर्म का और ऐकान्तिक सुखका भी प्रतिष्ठा है ॥ २६ ॥ २७॥ व्याख्या। यह जो "मैं" है, जो मैं केवल अकेला है, जिसमें कोई संयोग वा वियोगरूप व्यभिचारका छाप लगाया नहीं जा सकता, ऐसे “मैं” को गुरूपदिष्ट मतसे अव्यभिचारी रखके, व्यभिचार शून्य हो करके जो साधक मिल जानेकी चेष्टा करते हैं, वे साधक समस्त गुणोंको अतिक्रम करके ब्रह्म शब्दका जो अर्थ है वही हो जाते हैं। यह ब्रह्म ऐसा है :-जो केवल है ही है, जिसका कोई परिणाम नहीं, जो अव्यय, जो चिरन्तन, जो धर्म, जो अत्यन्त सुख वही ब्रह्म) है। ____ "ब्रह्मणोहि प्रतिष्ठाह” इस वचनका अर्थ है कि मैं ब्रह्मकी प्रतिमा, अर्थात् घनीभूत ब्रह्म ही मैं वा कूटस्थ चैतन्य हूँ; जैसे धनीभूत प्रकाश को सूर्यमण्डल कहते हैं। तेज वा ताप अदृश्य, परन्तु सर्वव्यापी है, कम वा अधिक परिमाणसे ( सूक्ष्म वा अति महीन हो करके ) सर्व
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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