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________________ दशम अध्याय कह करके 'मैं ही मैं कहेगा। यह मैं ही नित्य है। सब प्राप्तिको प्राप्त हो चुका कह करके ('क्योंकि, सब मैं में आकर मिल चुके ), प्राप्तिकी आकांक्षा नहीं है। तोष ही तोष भोग हो रहा है। पुरुष-प्रकृतिके एकरस हो जानेका नाम ही रमण है; यहां होता भी वही है ॥६॥ तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् । ददामि बुद्धियोग तं येन मामुपयान्ति ते ॥१०॥ अन्वयः। सततयुक्तानां ( मय्यासक्तचित्तानां ) प्रीतिपूर्वकं भजतां तेषां तं बुद्धियोगं ( ज्ञानं ) ददामि, येन ते मां उपयान्ति प्राप्नुवन्ति ) ॥ १० ॥ अनुवाद। जो लोग सतत योगयुक्त होकर प्रौतिपूर्वक मेरा भजन करते है, उन सबको, मैं वही बुद्धियोग ( ज्ञान ) देता हूं, जिससे वह लोग मुम्सको प्राप्त होते हैं ॥ १०॥ व्याख्या। उस प्रकार ब्रह्मानन्द-सुख ओ लोग सर्वदा भोग करते हैं, उनकी बुद्धि प्रेमके वशसे मुझ ( "मैं" ) को छोड़ने नहीं चाहता, भजता रहता है। इसलिये उनकी बुद्धिको मैं “मैं” में मिलाय लेकर "मैं” कर लेता हूँ, जिससे वह लोग मैं हो जाते हैं ॥१०॥ तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः। नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता ॥११॥ अन्वयः। तेषां एव अनुकम्पार्थ अहं आत्मभावस्थः ( सन् ) भास्वता ज्ञानदीपेन अज्ञानजं तमः नाशयामि ॥ ११॥ अनुवाद । जो लोग उक्त प्रकारसे भजन करते हैं; केवल उन्हीं सबके अनुकम्पार्य में उन सबके अन्तःकरण में रह करके उज्ज्वल ज्ञान-दीप द्वारा अज्ञानज अंधियाराको नष्ट करता रहता हूँ ॥ ११ ॥ व्याख्या। इस प्रकार साधनशीलोंके अज्ञानजात मायाविकार "मैं" के कृपासे नाश पाता है। क्योंकि, उनके आत्मभावमें स्थित
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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