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________________ त्रयोदश अध्याय १६३ व्याख्या। जो साधक उपरोक्त प्रकारसे अपनेको (अपनी आत्माको अर्थात् जो आत्मा शुद्ध, स्वयंज्योति, अविकारी, निराकृति है, उसको ), प्रकृतिको तथा प्रकृतिके गुण, क्रिया और शक्तिको दृढ़ता से जानकर समझ लेंगे, (जैसे तैसे जाना जानने से नहीं होगा, अन्त:करणमें जब जो किसी वृत्तिका उदय होगा, चेष्टा न करनेसे भी तब ही उस दृढ़ अभ्यासके गुणसे आप ही आप वह पुरुष-अवस्थाको प्राकृतिक संस्रवसे हटा कर सीधी सरल-हंसी हँसा देगा; जब ऐसा होगा, तब ही ) उनका भूत और भविष्यत् नामका प्रकृति के दोषसे उत्पन्न काल-विभाग नष्ट होकर सर्वथा वर्तमान निरन्तर अपरिवर्तनीय एक अवस्था पा जावेगी। उस अवस्थामें विधि निषेध कुछ भी नहीं रहेगा, क्योंकि उनका तब सर्व ब्रह्ममय हो जानेसे उनमें पुनर्जन्मके बीजस्वरूप वृत्तिमात्रका उदय फिर न होगा। साधक भी जीवन्मुक्त होवेंगे। इसलिये वह साधक बाहर वाले जिस किसी भाव में रहनेसे भी जन्म लेने वाले संस्कारके अभाव होनेके कारण उनका फिर पुनर्जन्म न होगा ॥ २४ ॥ ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना । . अन्ये सांख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे ।। २५ ॥ अन्वयः। [ एवम्भूतविविक्तात्मज्ञानसाधन विकल्पानाह ध्यानेनेति द्वाभ्यां ] । केचित् ध्यानेन । नात्माकारप्रत्ययवृत्या ) आत्मनि ( देह एव ) आत्मना ( मनसा एव ) आत्मानं पश्यन्ति, अन्ये सांख्येन योगेन ( ज्ञानयोगेन ) अपरे च कर्मयोगेन (पश्यन्ति ) ॥२५॥ ___ अनुवाद। कोई कोई ध्यानयोग द्वारा देहमें ही मानस दृष्टि से आत्मा का दर्शन करते हैं; दूसरे कोई कोई सांख्ययोग द्वारा तथा अपर कोई कोई कर्मयोग द्वारा ( आत्मा को अवलोकन करते हैं) ॥ २५॥ . __ व्याख्या। [ वह जो प्रकृति, प्रकृति-विकृति, विकार और पुरुषकी कथा कही हुई है, आत्म-दर्शन होनेसे ही उन सबको जाना जाता है।
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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