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________________ १६० । श्रीमद्भगवद्गीता अदल बदल नहीं होता; उसी तरह तुम्हारी अलीक प्रकृतिके गुणमें निगुण पुरुषको गुणके साथ संघठन कराना है। जैसे जैसे ढंगमें वह प्राकृतिक गुणकी बेड़ोका घेर है वैसे ही वैसे बह ब्रह्म कटा हुआ टुकड़े में भी पुरुषके देवता मनुष्य, प्रभृति सतयोनिमें, तथा पशु, पक्षी, कीड़े, पतंग प्रभृति असत् योनिमें जन्म ग्रहण करना है ॥ २२ ॥ उपद्रष्टानुमन्ता च भर्त्ता भोक्ता महेश्वरः। परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन् पुरुषः परः ॥ २३ ॥ अन्वयः। अस्मिन् ( प्रकृतिकार्ये ) देहे ( वत्त मानोऽपि ) पुरुषः परः ( भिन्नः भवति, न तद्गुणैः युज्यते इत्यर्थः ), (यस्मात् ) उपद्रष्टा ( पृथगभूत एव समीपे स्थित्वा द्रष्टा, साक्षीत्यर्थः ) अनुमन्ता च ( अनुमोदितव सन्निधिमात्रेणानुग्राहकः) भर्ती ( विधायक्रः ) भोक्ता ( पालकः ) महेश्वरः ( ब्रह्मादीनामपि पतिः ) परमात्मा ( अन्तर्यामी ) इति च अपि उक्तः ॥ २३ ॥ अनुबाद। इस शरीरके भीतर रह करके भी पुरुष पर ( प्रकृतिसे भिन्न ) है (क्योंकि बह) उपद्रष्टा, अनुमन्ता, भा, भोक्ता और महेश्वर है, तथ' वह परमात्मा इस नामसे भो उक्त है ( कहा हुआ है ) ।। २३ ॥ व्याख्या। कृषिक्षेत्रको रक्षा करनेवाला कृषक कृषिजात सब विषयोंके भलाई बुराईका द्रष्टा है। दिन रात प्रति पौधेके पास रह करके शश आदि जन्तुके उपद्रवसे सबको रक्षा करनेका बोझ उसी कृषकके ऊपर है। परन्तु कृषक उसे भलीभांति कर सकता नहीं; इसलिये घास फूससे एक पुतलीका आकार बनाकर लम्बे लम्बे हाथ लगाकर, एक बांसके ऊपर बैठाकर, काले हांडीसे उसका मस्तक बनाकर, क्षेत्रके ठीक बीचमें गाड़ देता है। उस पुतलीका किम्भूत किमाकार विकट मूर्ति देख करके शश श्रादि अनिष्ट करनेवाले जन्तु भय मान करके क्षेत्रके तरफ फिर नहीं आते। उस पुतलीके ऊपर क्षेत्र-रक्षा करनेका बोझ उस कृषकने छोड़ दिया है। इस कारणसे वह मूर्ति उस क्षेत्रकी उपद्रष्टा है। इसी तरह प्रकृतिका कार्यकारण-व्यापारके अत्यन्त
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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