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________________ “१५६ . श्रीमद्भगवद्गीता करता है उसीको प्रकृति कहते हैं। पुरुष कहते हैं-पुरमें ( घरके अन्दर ) जो सोया हुआ है। यह दोनों ही अनादि है (आज तक जो पैदा.ही नहीं हुआ ); न आदि अनादि । ब्रह्म शब्द का अर्थ करनेसे, बृह-धातुमें बृद्धि, महान् ; और मन् प्रत्ययके अर्थमें अवधिरहित समझाता है। जो अवधि रहित महान् है वही ब्रह्म शब्द वाच्य है। इस अवधि रहित महानका शासन जितनी दूर है, उतनी दूर तक और दूसरे किसीका स्थान नहीं हो सकता; केवल ब्रह्म ही ब्रह्म भासमान रहता है। दृश्य जगत्में जो कुछ देखता हूँ, उसीका एक न एक नाम है, रूप भी है। फिर ऐसे शब्द भी हैं; ढूढ़नेसे कोई चीज नहीं मिल सकती; तथापि उसका नाम है—(एष बन्ध्यासुतः याति खपुष्पकृतशेखरः। कूर्मलोमपटाच्छन्नःशशशृगधनुर्धरः)-जसे "भाकाशकुसुम” "घोड़े का अंडा” “सेर का सिंग” "बन्ध्या का बेटा” इत्यादि । ब्रह्म शब्दके शासनके भीतर रह करके माया, प्रकृति और पुरुषको भी समझना हो तो वह वस्तुशून्य शब्दमात्र विकल्पना वा अलीक (मिथ्या) समझना चाहिये । उन काल्पनिक शब्दोंके वस्तुत्व न रहनेसे भी जैसे उन सबके पोषण करने वाली सहकारी वृतियों का अभाव नहीं होता, यह माया, प्रकृति और पुरुष शब्दोंके अर्थमें भी वैसी ही है। जिस कारणसे जीवके दुःख की अत्यन्त निवृत्तिके लिये महर्षियों ने विवर्त्तवादमें (वेदान्त दर्शनमें ) जो वचन विलास कर रखे है, उनमें ब्रह्म ही सत्य और तदतिरिक्त माया, प्रकृति, पुरुष प्रभृति समस्त ही मिथ्या है। ‘सत्य" नाम कहके एक शब्द बाहर होनेसे ही उसके साथ ही साथ ( न रहनेसे भी) आप ही आप जैसे प्रतिपक्ष और एक “मिथ्या" शब्दका बोधन आता है, सत्य ब्रह्ममें यह मिथ्या मायाप्रकृति-पुरुष शब्द भी वैसे ही है। ब्रह्म सत्य, नित्य, निर्विकार; और माया अनित्य, असत्य, केवल विकारस्वरूप है। ब्रह्म और मायाका सम्बन्ध शरीर और छायाके सदृश है, एकको छोड़कर दूसरा नहीं
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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