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________________ दशम अध्याय अनुवाद | मेरे यह सब विभूति और योग ( योगैश्वर्य्य सामर्थ्य ) को जो लोग तत्त्वतः अवगत होते हैं, वे अविचलित योग में युक्त होते हैं; इसमें संशय नहीं #11011 व्याख्या । यह जो हमारी सृष्टिकरी वृत्ति, प्रलयकरी वृत्ति, ( संयोग और वियोग ), तथा सृष्टिके पहले और प्रलयके पश्चात् कैवल्य स्थिति है, इन तीनोंको ले करके मेरा विभूतियोग है । विभूति = विशेष प्रकार की उत्पत्ति है; बृहब्रह्माण्डमें कोटि कोटि क्षुद्रब्रह्माण्ड-स्वरूप प्राणीका विस्तार हो विशेषत्व है, और उस विभूतिको समेट ले आकर पुनः "मैं" में मिल जाना ही योग है। जो पुरुष तत्वमें रह करके इन दोनों को देखते हैं; अर्थात् साधन-शक्ति से प्रलय होनेके पहले जब प्रकृतिवशी अवस्था आती है, उसी अवस्थामें रह करके इस सृष्टि और उसकी लीलाको जो देखते हैं, उनको प्रलयप्रारम्भ समय में अर्थात् 'मैं' में मिल जाने के समय में पुनः और भोगलालसावृत्ति लेकर नाचनेकी रुचि नहीं होती । इस कारण करके "मैं" में पड़कर (मिलकर ) जो केवलत्व प्राप्त होता है, उसमें और हिलना डोलना नहीं होता । यह बात एक बारगी संशय शून्य है ॥ ७ ॥ अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्त्तते । इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः ॥ ८ ॥ अन्वयः । अहं सर्वस्य प्रभवः ( उत्पत्तिहेतुः ), मत्तः सर्व (जगत् ) प्रबत्त' ते, इति मत्वा बुधाः ( विवेकिनः ) भावसमन्विताः ( प्रीतियुक्ताः सन्तः ) मां भजन्ते ॥ ८ ॥ अनुवाद | मैं ही सबके उत्पत्तिका कारण तथा मुझसे ही सकल प्रबत्तित होता है, इसे जान करके बुधगण भावसमन्वित होकर के मुम्फको भजते रहते हैं ॥ ८ ॥ व्याख्या। “अहं”= मैं, परमात्मा; "सर्व" = सृष्टिकी रचनामाला, ब्रह्मादि स्थावरान्त पर्य्यन्त जो कुछ भी है, वह सब । " बुध" =
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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