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________________ त्रयोदश अध्याय १४७ रहनेका नाम "स्थैर्य" है। क्रिया विशेषके द्वारा देहात्माभिमान नष्ट करनेकी चेष्टाका नाम "आत्मविनिग्रह" है। ___ "इन्द्रियार्थों में वैराग्य” अर्थात् दश इन्द्रियोंका जो ग्रहण और भोग है, उसमें विराग उत्पन्न करना। "अनहङ्कार"-सृष्टिमुखी अहवार वृत्तिका विलोपसाधन। - "जन्ममृत्युजराव्याधिमें दुःख दोषका अनुदर्शन"। -जन्म लेना ही दुःख है, क्योंकि गर्भयन्त्रणा और प्रसवकालीन यन्त्रणा बड़ी ही कष्टकर हैं; इसलिये वह दूषित हैं। उसी प्रकार मृत्यु-यन्त्रणा भी दुःखदायक और दूषित है। बुढ़ापेमें प्रज्ञाशक्ति और तेज बिल्कुल घट जाता है, इसलिये इसमें भी दुःख और दोष वर्तमान है। इसी प्रकार व्याधि भी दुःख और दोषका स्वरूप है । जीवको ये सब दुःख भोगना अनिवार्य है। इन सब दुःख और दोषके सम्बन्धमें बार बार आलोचना करनेसे देहेन्द्रियविषयमें वैराग्य उत्पन्न होता है, प्रत्यगात्माके प्रति प्रवृत्ति उत्पन्न होती है, और परिशेषमें आत्मदर्शन होता है, इसलिये अन्त:करणमें जब जिस वृत्तिका उदय होगा उसीको पुनर्जन्मका बीज ज्ञान करके और उसीके साथ जन्म-दुःख, मृत्यु-दुःख, जरा-दुःख, व्याधि-दुःखसे आलोचना करके उस वृत्तिको नष्ट कर देना भी ज्ञानसाधन कह करके ज्ञान शब्द वाच्य है। . __"आसक्ति” इत्यादि। –संसारमें उत्कृष्ट भोग और मोहकी वस्तुएं पुत्र, स्त्री और धर द्वार हैं। इनमें भासक्त न होना और इनसे मिलने की इच्छा सम्पूर्ण त्याग कर देना । इष्ट अथवा अनिष्ट उपस्थित होने पर भी ग्रहण करनेके लिये चित्त विचलित न होना, सदा ऐसी सतर्क अवस्थामें रहना है। ११ श्लोक-मैं जो "केवल राम" हूँ, इस मैं में अव्यभिचारिणी भक्तिका अखण्ड प्रयोग (व्यभिचार, विषयमुखी वृत्तिको कहते हैं )। शून्यागार, नदी तीर, पर्वत, निर्जनस्थान, श्मशान अथवा इनका
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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