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________________ १४४ श्रीमद्भगवद्गीता न पड़ें इस प्रकारसे रहनेका नाम “संघात” है। जैसे तुम्हारे शरीर में असंख्य अणु परमाणु हैं, परन्तु ऐसे छिपे हुए हैं कि, किसी प्रकार भी एकके सिवाय दो की शंका उठनेकी भी युक्ति नहीं आती; ऐसे ही एक रसमें रहता है। यह जो भ्रम-प्रतिपाद्य असत्यको सत्यका ज्ञान करा देता है, इसे ही संघात कहते हैं । "चेतना" =जैसे लोहा स्वभावतः काला, कठोर और शोतल होने पर भी अग्निमें पड़कर गहरा सहवासके कारण तरल, उज्ज्वल, और भागके सदृश गरम हो जाता है; और यह सब रंग रूप जैसे लोहेके स्वाभाविक नहीं है; वैसे देहेन्द्रियादि अनित्य अवस्तुमें चित-संक्रमण होकर चैतन्य सदृश जो क्रिया दिखाता है, उसी को चेतना कहते हैं। "धृति”=धारणावती शक्ति । जो शक्ति अवसादके लिये विच्छिन्न नहीं होने देतो उसे ही धृति कहते हैं। यह इच्छादि समूह दृश्यत्व हेतु आत्मधर्म नहीं, परन्तु मनोधर्म हैं; इसलिये ये सब क्षेत्रान्तःपाति हैं । ये सबके सब विकार हैं, और इन सब विकारोंसे युक्त जो लोकजगतमें वर्तमान है, उसे ही क्षेत्र कहते हैं। यह क्षेत्रके उदाहरणको वर्णना संक्षिप्तमें की गई है ॥ ६ ॥७॥ अमानित्वमदम्भित्वमहिंसाक्षान्तिरार्जवम् । आचार्योपासनं शौचं स्थैर्य्यमात्मविनिग्रहः ॥८॥ इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहवार एव च । जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम् ॥६॥ असक्तिरनभिष्वंग; पुत्रदारगृहादिषु। नित्यच्च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु ॥ १० ॥ मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी। विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि ॥११॥ अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् । एतजज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा ॥ १२ ॥
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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