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________________ त्रयोदश अध्याय १३५ स्वरूप और कोई एक है, उसे ही आत्मा कहते हैं। वही संसारका 'अहं' अर्थात् ज्ञाता और साक्षी है-"अहमेकोऽपि सूक्ष्मश्च ज्ञाता साक्षी सदव्ययः”। यह "अह" ही इस श्लोकके "एतत् यो वेत्ति" इस उक्तिका वेत्ता है। इसीलिये तत्वविद्गण उसे क्षेत्रज कहते हैं। * किन्तु जो साधक साधन-शक्तिसे आत्मतत्वका अवलम्बन करके पगसे लेकर मस्तक पर्य्यन्त इस शरीरको ज्ञानका विषय किये हैं अथवा कर रहे हैं। वे भी क्षेत्रज्ञ हैं। क्योंकि वे क्रमशः उस “अहं" में चित्तलय करके तत्स्वरूप प्राप्त करके "अहं" स्वरूप हो जाते हैं। श्रीमत् शंकराचार्य और श्रीधर स्वामीने इस श्लोकके भाष्य टीका में ऐसे ही क्षेत्रका वर्णन किया है। किन्तु दूसरे श्लोकमें भगवानके "क्षेत्रज्ञञ्चापि मां विद्धि" इस वचनके अनुसार स्वामी शंकराचार्य्यने कहा है कि, क्षेत्रज्ञके सम्बन्धमें केवल इतना ही जाननेसे काम न चलेगा; जो सर्वक्षेत्रमें (सबमें) एक अद्वितीय परमेश्वर रूपसे विराजमान है, वही क्षेत्रज्ञ है। इससे समझाता है कि, शरीरतत्व-विद् साधक भी क्षेत्रज्ञ और परमेश्वर भी क्षेत्रज्ञ है । भगवानने ४र्थ श्लोकमें “स च यो यत्प्रभाषश्च" कहकर क्षेत्रज्ञके सम्बन्धमैं कहा कि, आगे कहेंगे, परन्तु अध्याय में किसी स्थान पर भी स्पष्टतया क्षेत्रज्ञका लक्षण नहीं कह करके अमानित्वादि कई एक गुणोंको ज्ञानसाधनत्व हेतु ज्ञान कह करके उल्लेख कर दिया तत्पश्चात् "ज्ञेयं यत्तत् प्रवक्ष्यामि” इत्यादि श्लोक द्वारा ज्ञेय पदार्थका लक्षण कह दिया है। इसीसे अर्जुनके "ज्ञान और ज्ञय क्या है ?" इस प्रश्नका उत्तर भी दे दिया गया और क्षेत्रज्ञ के स्वरूपका भी वर्णन कर दिया गया है। अतएव इसीसे जानना चाहिये कि, वह अमानित्वादि ज्ञानसाधन गुण जिसमें रहता है वह ज्ञानविज्ञानयोगाधिकृत होनेके पश्चात् संन्यासी और ज्ञाननिष्ट होनेके कारण बह भो क्षेत्रज्ञ-शरीरतत्वविद् साधक है; और जो शुद्ध केवल क्षेत्रज्ञ है, जिसका प्रभाव जाननेसे अमृतत्व लाभ होता है, वहो ज्ञेय है। उसके लक्षणादि "अनादिमत् परं ब्रह्म" इत्यादि द्वारा १३ से १८ श्लोक पर्यन्त वणित है। साधकको स्मरण रखना चाहिये कि म अध्यायमें वर्णित भगवानकी अपरा एवं परा दोनों प्रकृतिको ही इस अध्यायमें दो स्थान पर यथाक्रम अनुसार क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ एवं प्रकृति और पुरुष नामसे उल्लेख किया गया है। नाम पृथक् पृथक् है परन्तु उनमें भेद बहुत थोड़ा है।
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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