SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 14
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दशम अध्याय "दान” = न्यायार्जित सम्पत्तिको यथाशक्ति सत् पात्रमें देना। साधक ! तुम देखो, ब्रह्म बिना तुम और कुछ भी नहीं हो; तथापि तुम मायाको आश्रय करके अहंकार सज लेकरके शब्द-स्पर्श-रूप-रमगन्धको ले लिये, यही सब तुम्हारा न्यायार्जित धन है। “धन”धळधारणा, न=नास्ति; धारणा शून्यताका नाम धन है। इन शब्दादि विषयोंमें मनकी धारणा नहीं होती, चञ्चलता ही रहती है। इसलिये इन सभोंका नाम धन है। यह जो तुम्हारा धन है, सब असत् है, क्योंकि परिणामी है। इन सभोंको सत् पात्र में अर्थात् नित्य, अपरिणामी, परब्रह्ममें समर्पण करनेका नाम दान (५म अ० १०म श्लोक "ब्रह्मण्याधाय” देखो) है; अर्थात् वासना त्यागपूर्वक ब्रह्मज्यानसे उनके पृथक् अस्तित्व भूल जाकर सबमें ही ब्रह्मदृष्टि स्थापन करनेका नाम दान है। "यश' =धर्म निमित्त कोति। "अयश" = अधर्म निमित्त यह सब भूत-बाजारमें अर्थात् अन्तःकरणके धम्मियोंमें रहता है। इसलिये इस संभोंको भूतभाव कहते हैं। यह सब भाव "मैं" से उत्पन्न होनेसे भी पृथकविध हैं अर्थात् भिन्न भिन्न प्रकारके हैं । “मैं" का भाव वा श्रात्ममाव जो है, उसमें पृथक् विधत्व नहीं है, वह एक अद्वितीय है। इसलिये भूतभाव समूह आत्मभाबसे सम्पूर्ण विपरीत हैं॥४॥५॥ महर्षयः सप्त पूर्वे चत्वारो मनवस्तथा । मद्भावा मानसा जाता येषां लोक इमाः प्रजाः।।६।। अन्वयः। महर्षयः सप्त ( भृग्वादयः ) पूर्व ( अतीतकालसम्बन्धिनः) चत्वारः ( सनकादयः) तथा मनवः ( स्वायम्भुवादयः ) मद्भावाः (मत्सामयेनोपेताः ) मानसाः ( मनसैघोत्पादिता मया ), लोके येषां ( मनूनां महर्षीणां च ) इमा ( स्थावरजंगमलक्षणाः ) प्रजाः ( सन्ततयः) जाताः ( उत्पन्नाः ) ॥६॥
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy