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________________ द्वादश अध्याय १२६ अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथः । सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्तः स मे प्रियः ॥ १६ ॥ अन्वयः। अनपेक्षः (निस्पृहः ) शुचिः (बाह्याभ्यन्तरशौचसम्पनः) दक्षो (अमलसः ) उदासीनः ( पक्षपातरहितः ) गतव्यथः (आधिशून्यः) सारम्भपरित्यागी ( सर्वान् दृष्टादृष्टार्थान् प्रारम्भान् उद्यमान् परित्यक्तं शीलं यस्य सः) यः मद्भक्तः स मे प्रियः ॥ १६॥ अनुवाद। जो साधक स्पृहाशून्य, शुचि, दक्ष, उदासीन, व्यथावजित तथा सारम्भपरित्यागी है; वह मद्भक्त ही हमारा प्रिय है ॥ १६ ॥ व्याख्या। "अनपेक्ष" जो पुरुष किसीकी अपेक्षा न करके अकेले रहते हैं अर्थात् कैवल्य भोग करते है; वही अनपेक्ष हैं। मनकी चञ्चलता ही अशुचि और स्थिरत्व ही "शुचि” है। बाह्यजगत्के विषयों को लेकर खेलनेका नाम ही "कार्य" है। प्रत्युत्पन्नमतिके द्वारा इन सबका परिचालन करके और इन सबके संस्पर्श से दूषित न होकर जो साधक केवल सत्यमें अवस्थान करते हैं; वे ही "दक्ष" हैं। दक्ष प्रजापति हैं; प्रकृष्टपूर्वक उत्पन्न हो करके स्थिति और भंग जिनकी प्रकृति है वे ही प्रजा हैं। इस प्रजाका जो नियन्ता है वही दक्ष है। ऊँचे स्थानमें बैठे हुए को जैसे नीचे वाला मनुष्य छू नहीं सकता ठीक उसी तरह समाधिस्थ योगीकी दशा है। जगतप्रफचसे अपने अन्त:करणको उठाकर उस प्रकार रहने के सदृश ऊँचे पर जो रहता है, वही "उदासीन" है। आधि और व्याधि * जिसके अन्तःकरणमें किसी प्रकारका विकार उत्पन्न नहीं करतो; उसीको गतव्यथ" कहते हैं। जिसके कर्म तथा कार्यका प्रारम्भ ही नहीं रहता, उसको "सर्वारम्भपरित्यागी” कहते हैं। गुरु-वाक्यमें अटल विश्वाससे इस प्रकारकी ___ * मनकी पोडाका नाम आधि है; और इसकी शान्ति अननुध्यानसे होती है। व्याधि शरीरकी पौड़ाका नाम है; इसकी शान्ति प्रतिकार द्वारा अर्थात् औषधा. पथ्यादिके प्रयोगसे होती है ।। १६ ।। -६
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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