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________________ १२७ द्वादश अध्याय अद्वष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च । निर्ममो निरहङ्कारः समदुःखसुखः क्षमी ॥ १३ ॥ सन्तुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढ़निश्चयः । मय्यर्पितमनाबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः ॥ १४ ॥ अन्वयः। सर्वभूतानां अद्वष्टा, मैत्रः, करुणः एव च, निर्ममः, निरहङ्कार, समदुःखसुखः, क्षमी ( क्षमाशीलः ), सततं सन्तुष्टः, योगी ( अप्रमतः ), यतात्मा (संयतस्वभावः ), दृढ़निश्चयः (आत्मतत्व-विषये स्थिराध्यवसायसम्पन्नः), मय्यपितमनोबुद्धिः ( मयि अपिते स्थापिते मनोबुद्धिः यस्य संन्यासिनः सः ) यः ( ईदृशो) मद्भक्तः सः मे प्रियः ॥ १३ ॥ १४ ॥ अनुवाद। जो पुरुष सब प्राणियोंसे द्वषशून्य, मैत्र, कृपालु, ममताविहीन, अहकारशून्य, सुखदुःखमें समज्ञानसम्पन्न, क्षमाशील, सर्वदा सन्तुष्ट, योगी (अप्रमत्त), संयतचित्त, दृढ़ अध्यवसायसम्पन्न और हममें अपने मन, बुद्धिको अर्पण करनेवाला है; वही मद्भक्तः मेरा प्रिय है ॥ १३ ॥ १४ ॥ व्याख्या। जिस समय साधक साधनके बलसे 'मैं' में आकर संकल्प-विकल्प रूप मन और निश्चयकरणशक्ति बुद्धिको एक स्थान पर स्थिर कर देते हैं, उस समय उनके अन्तष्करणमें सङ्कीर्णताका बन्धन शिथिल हो जाता है और उदारताका विकाश होता है। संयम-साधन समयमें उनका भूतादि विषयोंके प्रति जो विरोध भाव था, इस अवस्थामें पहुंचने से उसका भी लोप हो जाता है। मानो क्रमशः सबमें ही मैं-ज्ञान हो जाता है और इसीलिये द्वष-भाव हट जाता है। मेरी प्यारी वस्तु जैसी मैं हूँ, वैसी और कोई नहीं है; इससे मैत्री भावका प्रकाश होता है। अपना कष्ट जिस प्रकार मैं सहन नहीं कर सकता उसी तरह यह भाव सबके ऊपर विस्तार हो करके करुणा रससे पूर्ण होकर “मैं” में मिला लेता है। सबही “मैं” हो जाता है इसलिये 'मेरा' कहनेको कोई नहीं रहता। मुझे छोड़कर और किसी की विद्यमानता नहीं रहती और इसीलिये अहङ्कारका प्रादुर्भाव नहीं
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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