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________________ दशम अध्याय ग्रहण नहीं करते। परन्तु उन लोगोंकी उस अवस्थाकी ग्रहण करनेवाली शक्ति नहीं है, ऐसा नहीं। इसलिये “मैं” महर्षि और देवतों का भी आदि हूँ॥२॥ यो मामजमनादिव्च वेत्ति लोकमहेश्वरम् । असंमूढः स मत्त्येषु सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥३॥ अन्वयः। यः माम् अनादि अजं लोकमहेश्वरं ( लोकानां महान्तं ईश्वरं ) च वेत्ति, सः मय॑षु ( मनुष्येषु ) असंमूढः ( संमोहरहितः सन् ) सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥३॥ अनुवाद। मुझको जन्मसे रहित अनादि और सर्वलोक-महेश्वर रूपसे जो लोग जानते हैं, मर्त्यलोकमें वह लोग मोहवजित होकरके सर्व प्रकार पापसे विमुक्त होते हैं ॥३॥. व्याख्या। इस भादि-अन्त विशिष्ट जगतमें कोई भी अनादि नहीं है, एकमात्र “मैं” ही अनादि-मूल कारण हूँ। कर्म करते करते कमीका जैसे जैसे कर्मक्षय होता जाता है, तैसे तैसे कम्मी इस "मैं के निकट आता रहता है। कमी जब 'मैं' को अपनेसे अभिन्न अनादि कह करके समझ लिया, तत्क्षणात मूढत्व (कामनाके वश जो, वही मृढ़ है) परित्याग करके “मैं” में मिलकर मर्त्यधर्मको छोड़ अपनेको जगत्का महान ईश्वर कह करके निश्चय कर लेता है। इसलिये उसमें परिवर्तनशील चन्चलता (पाप ) नहीं रहता। क्योंकि "मैं” अज-जन्म रहित हूँ, जन्म लेनेसे ही पाप होता है; "मेरा" जन्म भी नहीं है, पाप भी नहीं है ॥३॥ बुद्धिानमसंमोहः क्षमा सत्यं दमः शमः । सुखं दुखं भवोऽभावो भयच्चामयमेव च ॥४॥ अहिंसा समता तुष्टिस्तपोदानं यशोऽयशः । भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधाः ॥५॥ अन्वयः। बुद्धिः ज्ञानं असंमोहः क्षमा सत्यं दमः शमः सुखं दुःखं भवः
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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