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________________ एकादश अध्याय १०१ "धाम”-निवासस्थान, हरे : पदं तापहरणैक धाम; वह भी तुम ही हो। हे अनन्तरूप ! तुम इस विश्वमें और यह विश्व तुममें व्याप्त है। जैसे चीनीके शरबतमें जल और चीनी। इसीलिये परं (ब्रह्म ) भी तुम्ही हो ॥ ३८ ॥ वायुर्यमोऽग्निवरुणः शशांकः . प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च । नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते ॥ ३६॥ अन्वयः । त्वं वायुः यमः अग्निः वरुणः शशांकः प्रजापतिः ( पितामहः) प्रपितामहश्च; ते ( तुभ्यं ) सहस्रकृत्वः नमः नमः अस्तु, पुनश्च ( सहस्रकृत्वः नमः नमः अस्तु ), भूयोऽपि ते नमः नमः ॥ ३९॥ अनुवाद। तुम ही वायु, यम, अग्नि, वरुण, शशांक, प्रजापति और प्रपितामह हो, तुमको सहस्र बार नमस्कार है; पुनश्च नमस्कार है, फिर भी बार बार नमस्कार है ॥ ३९॥ व्याख्या। वायु कहते हैं वाहक को। हे नाथ ! आदिअन्तयुक्त जो कुछ है उसे तुम अपने शरीर में धारण करके वहन करते हो, इसलिये वायु भी तुम हो। यम भी तुम हो ( १०म अः २६ श्लोक), अग्नि भी तुम हो (हम अः १६ श्लोक ), वरुण भी तुम हो ( १०म श्रः २६ श्लोक)। शश शब्दमें लान्छन वा कलंक ( जो केवल फेकने की चीज ) है और अंक शब्दसे क्रोड़ वा गोदीका बोध होता है। जो प्रकाश ही प्रकाश, नित्य ही नित्य है, उसकी क्रोड़में अनित्य प्रकाश मायाको बैठा कर मायिकों का जो भ्रम दर्शन है, वही शशांक अवस्था है। वह भी तुम ही हो; क्योंकि, तुममें ही यह सब अवस्थाएं वर्तमान हैं।
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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