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________________ ६६ श्रीमद्भगवद्गीता निम्नगतिका भी रोध होता है। यह जो दोनों गतिओंके एकत्र मिलनेसे स्तम्भन अवस्था है, इसीको कृताञ्जलि कहा हुआ है। __ "वेपमान"। भोग्यवस्तु सम्मुखमें वर्तमान हैं, ऐसे समयमें स्पर्श करनेके पूर्व में अत्यन्त आसक्तिके कारण दुर्बलतासे आत्मकम्पन होता है, उसीको वेपमान अवस्था कहते हैं। "किरीट" अर्थात् शिरोभूषण। असिद्ध तथापि सर्व प्रकारसे प्रबल उत्साह-युक्त साधककी संज्ञा किरीटी है; अर्थात् जो साधक कार्य और गुणसे सकल साधकोंके शीर्षस्थानीय है, साधकों में उसको किरीटी कहते हैं। बड़ा हरे, बड़ा दुःख, बड़ा भय, बड़ा विस्मय, बड़ा स्नेह, बड़ा उत्साह आदि वृत्तिसमूह एकह मिल करके युगपत् भीतरसे बाहर आकर प्रकाश होनेकी चेष्टा करनेसे अश्रुपूर्ण-नेत्र और कण्ठरोध हो करके जिस अस्पष्ट स्वरका उच्चारण होता है, उसीको “गद्गद्" कहते हैं। 'भीतभीतः प्रणम्य'। हृदयमें जब ऊपर वाली अवस्था समूहका युगपत् आविर्भाव होता है, उस समय यदि प्राणका प्राण हट जाय, यह आशंका करके साधक बार बार भयसे भीत होते हैं। उनका अहंकार सब दूर हो जाता है, और नत हो करके अन्तरस्थ वायुका वेग धारण कर नहीं सकते। सुन्दर कण्टकहीन ( सरल ) दीर्घ निश्वास और प्रश्वासका त्याग और ग्रहण करते हैं। विषय-वृत्तिका एकदम निरोध होता है, अयच ऐसी विभूतिसे मिला हुआ रहनेसे ब्रह्मनाड़ीके ठीक मध्यसे श्वासके क्रममें चलने फिरनेसे ऊंची नीची गति होती है; इसीको ही प्रणाम कहते हैं। इस समय मुक्तिदाताके ऊपर आपही आप जो प्रेम स्वतः उत्पन्न हो जाता है वही कृष्णको कहनेका इङ्गित है। इस अवस्थामें मायिक (चिदाभास कर्मज संस्कार और कर्तव्यादि ) किसी वृत्तिका प्रकाश नहीं रहता। इसलिये वासनाका
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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