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________________ एकादश अध्याय मात्र है, फलबिधाता वही 'मैं' रूपी अद्वितीय अचिन्त्य पुरुष है। अब यह जो समय उपस्थित हुमा है ( इसे ऐतिहासिक कथा मानलो अथवा योगसाधनकी कथा मानलो ), इसमें भी वह एकही विधान वर्तमान है। इन दोनों सैन्योंके मध्य भागमें खड़ा होनेके पूर्वसे ही इस युद्धघटिव जितने कर्मों के अनुष्ठान हो चुके हैं-यम नियमादि जिन सब योगाङ्ग साधन द्वारा सव्यसाची अवस्था लाभ किया हुआ,. उसका अवश्यम्भावी फल-अनिवार्य विधान यह है कि, अब प्राणायाम-रूपी शर चालन करनेसे ही भीष्म, द्रोणादिकके साथ दुर्योधनादि वृत्ति समूह निश्चय लयप्राप्त होवेगाही, आपही आप होगा क्योंकि वे सब पूर्वहीसे 'मयैव निहताः' हो चुके हैं, अर्थात् मैं रूपी विधाताके कर्मफल विधानके विधानसे सब कुछ ठीक ठीक तैयार है, इसके विपरीत उनके लिये और कुछ हो ही नहीं सकता। प्राणायाम करना केवल निमित्त मात्र है। साधक सब्यसाची होकर अब जिस अवस्था में उपस्थित हुये हैं, उसमें इच्छासे चाहे अनिच्छासे हो, अवश्य साधकको इस निमित्तका नामी बनना पड़ेगा; किसी तरह भी साधक इस निमित्तसे बच नहीं सकते। क्योंकि 'स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्' इस वाक्य अनुसार साधकको पुनः पार्थिव अंशमें विशेष लपटना नहीं पड़ेगा, तत्पश्चात् “पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोऽपि सः” इस वाक्य अनुसार साधकको अवश होकर ब्रह्ममुखी होना ही पड़ेगा, बाद इसके 'कत्त नेच्छसि यन्मोहात् करिष्यस्यवशोऽपि तत्' इसी वाक्यके अनुसार साधकको कर्मफलके वशमें पड़कर इच्छा न रहनेसे भी बाध्य होकर कम करना ही पड़ेगा। इस कारण साधक कर्मसे छुटकारा नहीं पाते। जो कम कर चुके हैं उसके फल से उनको अवश्य 'निमित्त' होना ही होगा। अतएव अपनी इच्छासे यदि साधक निमित्त न होंगे, तो प्रकृतिके ऊपर निज आत्मप्रभाव विस्तार रूप यशोलाभ नहीं कर सकते-"असपत्नं ऋद्धं राज्य" का
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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