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________________ ५८ श्रीमद्भगवद्गीता अकीर्ति है। इस प्रकार अकीर्तिमान् साधकको जीवन-प्राप्ति नहीं होती अथवा अनेक देरसे होती है; कारण यह कि, शरीर त्यागके .. समयमें कीर्ति जैसे जीवको कर्म सीमा अतिक्रम करा देता है अकीर्ति वैसी उनको अनेक नीचे स्तरमें फेक देती है, अथवा खींच रखकर सीमा पार होने नहीं देती इसलिये उनको जन्म-मरणके वशमें पड़ना पड़ता है। इसीलिये भगवान कहते हैं, इस प्रकार कश्मल तुममें कैसे आये ? श्रात्म-प्रभा-शक्तिसे तुमने जो "भूभूव" आदि सर्वजयी होकर स्वर्ग भ्रमण किया है, अर्थात् सहस्रारके सहस्र दलमें विचरण किया है, महादेवके प्रसादसे पाशुपत अस्त्र पाया है, अर्थात् सहस्रार कर्णिकाके मध्यगत ब्रह्म-बिन्दुमें आत्मोत्सर्ग करके निमेष मध्यमें सकल अशुभ-नष्ट करनेवाले शिव-पदमें प्रतिष्ठित होनेकी शक्ति पाई है ! वैसे तुममें तो इस प्रकारकी मोह-प्राप्ति शोभा नहीं देती !! ॥२॥ कुब्यं मास्म गमः पार्थ नैतत् त्वय्युपपद्यते। क्षुद्र हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप ॥३॥ अन्वयः। हे पार्थ ! क्ले ब्यं मास्म गमः, एतत् त्वयि न उपपद्यते ( योग्यं न भवति ); हे परन्तप ! क्षुद्र ( तुच्छं ) हृदयदौर्बल्य ( कातय्यं ) त्यक्त्वा उत्तिष्ठ ।।३।। अनुवाद। हे पार्थ ! क्लीवताको ग्रहण न करना; यह तुममें शोभा नहीं पाती; हे परन्तप ! हृदयका तुच्छ दुर्वलताको छोड़कर उत्थित होओ ॥ ३ ॥ व्याख्या। तुम पृथाके पुत्र हो ! तुम्हारी माता पृथा (पृथ् = क्षेपणे; क्षेपण-शक्ति, साधकका साधन-जीवनकी जननी है ) अपने गुणकर्म-विभाग-शक्ति-बलसे स्वेच्छा, परेच्छासे बराबर अपनी पूर्व पूर्वावस्थाको त्याग करती हुई चली आई,-ऐसी कि अपने जन्मदाता पिता शूरसेनको त्याग करके उनको कुन्तिभोजकी कन्या भी होनी पड़ी थी। वही मात्गुण तुममें भी विद्यमान हैं। तुम भी इच्छा करनेसे
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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