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________________ श्रीमद्भगवद्गीता ___ गुरुने उपदेश दिया है विषय-वासनाको एकदम त्याग करनेके लिये; किन्तु शिष्य उस वासनाको ही प्राणका प्राण मान करके उसके ऊपर अत्यन्त कृपा-परवश (आसक्त) होते हैं। पश्चात् इस प्रकार अवस्थापन्न होनेसे मनमें जिस जिस भावका उदय होता है वह वही कहते हैं ॥२७॥ अर्जुन उवाच । दृष्ट्मान् स्वजनान् कृष्ण युयुत्सून् समवस्थितान् । सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति ।२८।। वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते । गाण्डीवं संसते हस्तात् त्वक् चव परिदह्यते ॥२६॥ अन्वयः। अर्जुनः उवाच। हे कृष्ण ! इमान् स्वजनान् ( बन्धुजनान् ) युयुत्सून् समवस्थितान् ( योद् म् इच्छन्तः पुरतः सम्यगवस्थितान् ) दृष्ट्वा मम गात्राणि (करचरणादीनि ) सीदन्ति ( विशीयन्ते ) मुखं च परिशुष्यति; मे शरीरे वेपथुश्च रोमहर्षश्च जायते, हस्तात् गाण्डीवं स्रसते, त्वक् च एव परिदह्यते ॥ २८ ॥ २९ ॥ ___ अनुवाद। अर्जुन कहते है-हे कृष्ण ! युद्ध च्छु ये सब अपने जनों को सामने उपस्थित दर्शन करके हमारा सकल अंग अषसन्न और मुख परिशुष्क होता है, हमारा शरीर विशेष करके कम्पायमान तथा रोमाश्चित होता है, हाथकी मुट्ठीको ढिलाईसे गाण्डीव गिरा पड़ता है, एवं हमारे सर्व शरीरमें जैसे एक ज्वालासी जान पड़ता है ॥ २८ ।। २९ ॥ व्याख्या। इस अवस्थामें साधककी मानसिक चंचलता अधिकसे अधिक होने पर, शरीरसे पसीना निकलता, मुख सूखता, तमाम शरीर कांपता, और रोमाञ्चित् होता है। हाथकी मुट्ठी ढीली होनेसे गाण्डीव (धनुष ) हाथसे खिसक पड़ता है, और सर्व शरीरके भीतर बाहर एक ज्वाला जैसी मालूम पड़ती है। इन सब अवस्थाओंको साधक मात्र ही स्वतः अनुभव करते हैं, इसलिये अधिक समझानेका और प्रयोजन नहीं। किन्तु मुट्ठीसे गाण्डीव खिसक पड़नेके सम्बन्धमें
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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