SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 75
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रीमद्भगवद्गीता भावापन्न साधक। प्रथ = विख्यात होना, अकत्र्तवाचक-शब्द अर्थात् जो आपही आप विख्याता या स्वनामख्याता है, उन्होंको "पृथा" कहते हैं। प्रकृति खुदही स्वनामख्याता है। इस प्रकृतिसे उत्पन्न हो करके स्वनामख्यात जो सब है, उन्हीको ही पार्थ कहते हैं । (श्राकाश-युधिष्ठिर, वायु=भीम, तेज =अर्जुन, इन सभों को भी इसीलिये पार्थ कहा है क्योंकि मातृभाव प्रकाश करके ये सब प्रकाशित होते हैं)। साधक इस समयमें आपही आप गुरूपदेशकमसे पूर्वमुखी रहनेसे, प्रतिपक्षीय भीष्म, द्रोण तथा प्रधान प्रधान वृत्ति समूहको (यद्वारा मही अर्थात् पार्थिव सुख भोग किया जाय ) सम्मुखमें देखते रहते हैं। तब "इन सब समवेत कौरवोंको दर्शन करो” इस प्रकारका ज्ञान उनके हृदयमें उठता है ।। २४ ॥ २५ ।। तत्रापश्यत् स्थितान् पार्थः पितृनथ पितामहान् । प्राचार्यान्मातुलान्भ्रातृन्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा । श्वशुरान् सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि ॥ २६ ॥ अन्वयः। अथ पार्थः ( अर्जुनः ) तत्र उभयोः सेनयोः अपि पितॄन् पितामहान् आचार्यान् मातुलान् भ्रातृन् पुत्रान् पौत्रान् तथा सखीन् श्वशुरान् सुहृदश्च एष स्थितान् ( उपस्थितान् ) अपश्यत् ।। २६ ॥ अनुवाद। अनन्तर अर्जुनने उक्त स्थानमें दोनों सेनाओं के पितृगण, पितामहगण, आचार्यगण, मातुलगण, भ्रातृगण, पुत्रगण, पौत्रगण, तथा सखा-श्वशुर-सुहृदगण-सबका उपस्थित देखा ॥ २६ ॥ व्याख्या। तब वह मातृभावापन्न साधक साधनके अनुकूल प्रतिकूल आमूल वृत्ति समूहको प्रत्यक्ष करते हैं। मनुष्यके शरीरमें साधनाका साहाय्य करनेवाली हजारों नाड़ियां हैं, उन्हीं सब नाड़ियोंसे मन-बुद्धिके सहयोगसे नाना प्रकारकी वृत्ति उठती है, पुनश्च एक वृत्ति उठनेसे उसमेंसे बहुत सी नवीन वृत्तियोंकी सृष्टि
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy