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________________ २६. प्रथम अध्याय दौड़ता है। और निवृत्तिका दल भी साधकको आत्मामें मिलानेके लिये आत्ममुखमें ले जाता है, इस प्रकारसे समस्त वृत्तियां भी अपना अपना काम सबसे पहले करने के लिये स्थिर और प्रस्तुत होके रहती हैं। इस प्रकारकी अवस्थाको ही "प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते” कहकर व्यक्त किया गया। इसी अवस्था में ही हृषीकेशका (हृषिका=इन्द्रियां, ईश=नियन्ता) आविर्भाव होता है, अर्थात् समुदाय इन्द्रिय वृत्तिके निज निज कार्यमें उन्मुख रहनेसे उन सबके ऊपर, आधिपत्य करानेकी शक्ति साधकमें आती है, उसी संयम-शक्तिका नाम हृषीकेश है ॥ २०॥ . . अर्जुन उवाच ॥ सेनयोरुभयोमध्ये रथंस्थापय मेऽच्युत ॥ २१ ॥ यावदेतान्निरीक्षेऽहं योद्धुकामानवस्थितान् । कर्मया सह योद्धव्यमस्मिन् रणसमुद्यमे ॥ २२ ॥ योस्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः। धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेयुद्धे प्रियचिकीर्षवः ॥२३॥ अन्वयः। हे अच्युत ! उभयोः सेनयोः मध्ये मे रथं स्थापयः अहं बोद्ध कामान् अवस्थितान् एतान् -अस्मिन् रणसमुद्यमे कैः सह मया योद्धव्यं ( तत् च ) यावत् ( साकल्य) निरीक्षे। (अपिच ) युद्ध दुबुद्ध धात राष्ट्रस्य ( दुर्योधनस्य ) प्रियचिकर्षिवः ( हितं इच्छन्तः सन्तः ) ये एते अत्र समागताः, अहं तान् योत्स्यमानान् (युद्धार्थीन् ) अवेक्षे ॥ २१ ॥ २२ ॥ २३ ॥ अनुवाद। अर्जुन कहते हैं । हे अच्युत ! हमारा रथ दोनों सेनाके ठीक बोचमें ( सन्धिस्थलमें ) रखिये। युद्धच्छा. करके यह जो संन्य समूह खड़ी हुई है, इस युद्धमें इनमें किसके किसके साथ मुझे युद्ध करना पड़ेगा, उसे अच्छी तरहसे में देख लू। और भी इस युद्ध में दुर्बुद्धि दुर्योधनकी हित कामना करके जो जो यहां आये हैं, उन सब युद्धार्थीयोंका भी मैं दर्शन कर लू॥ २१ ॥ २२ ॥ २३ ॥ व्याख्या। "अर्जुन उवाच”–अब श्रीकृष्णार्जुन सम्बाद प्रारम्भ हुआ। इसलिये कहा गया "अर्जुन उवाच" = अर्जुन कहते हैं ।
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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