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________________ त्रीमद्भगवद्गीता होते हैं, यह भी उसी प्रकारका सरल प्रश्न है ; अतएव धृतराष्ट्रने संजयसे ऐसा प्रश्न क्यों किया, इस प्रकारका सन्देह होनेका कोई कारण नहीं है ॥ १॥ . संजय उवाच । दृष्ट्वातु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा । आचार्यमुपसंगम्य राजा वचनमब्रवीत् ॥२॥ अन्वयः। तदा तु राजा दुर्योधनः न्यूढं ( व्यूह रचनयाधिष्ठित्तं ) पांडवानीकं दृष्ट्वा आघाय्य उपसंगम्प (द्रोणाचार्यसमीपं गत्वा ) वचनं अब्रवीत् ॥ २॥ अनुवाद। संजय कहते हैं,-पांडवसैन्योंकों व्यूहरचनासे अवस्थित देख कर राजा दुर्योधन द्रोणाचार्यके समीप जाकर इस प्रकार बोले ॥२॥ व्याख्या। 'संजय उवाच' इस कथाका अर्थ २१वें श्लोककी व्याख्यामें देखो। नाट्यशालाका एक नट जैसे अभिनयकालमें भिन्न भिन्न साज सामान लेकर भिन्न भिन्न आकार धारण करलेता है, और वह स्वयं जो है सोही रहता है, तद्र प एक ही मनुष्य कभी कुबुद्धिके वशीभूत होकर मूर्तिमान काम, क्रोध, लोभ प्रभृति हो जाता है, पुनश्च कभी सुबुद्धिके वशमें आकर साक्षात् शम, दम, तितिक्षास्वरूप बन जाता है। ठीक उसी प्रकार साधक भी गुरूपदिष्ट क्रियामें साधनमार्गमें विचरण करते करते समयके अनुसार प्रापही श्राप कभी धृतराष्ट्र, कभी संजय, कभी दुर्योधनादि तथा कभी अर्जुन और श्रीकृष्ण होकर गीताको प्रत्यक्ष करता है। इसलिये दुर्योधन कहनेसे समझना चाहिये कि, साधकका विषयवासनाधीन अतिमानी अवस्था है। 'राजा दुर्योधन'। (दुः= दुःखमें, युध युद्धकरना+अन )दुरखमें योधनीय, अर्थात् जिसके साथ अतिकष्टसे युद्ध किया जा सके वही दुर्योधन है। यह दुर्योधन ही ३य अध्यायका 'कामरूपं दुरासदं' है। इसलिये कामना वा विषयवासनाका नाम दुर्योधन है। इसीको
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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