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________________ 406 श्रीमद्भगवद्गीता फिर जब तुम उस कृपणताको दूरमें फेंक कर यथारीति उपदेश अनुसार पृथिवीको लेकर जलमें, जल तेजमें, तेज वायुमें, वायु आकाशमें, आकाशको पराकाशमें ले जाओ, उसीको करण कहते हैं; यही पितृभाव है। और यह जो कर चले हो, उसीको भोग कहते हैं / ( विषय भोग करनेका नामही भोग है; इसमें सूचना, चीखना देखना सब रह गया)। और इसको ले जाकर जो “मैं” त्वमें फेंक देते हो; इसीको ही हवन कहते हैं। वह जो विषयादि भोग छोड़ कर चले आये हो, वही दान है। और यह जो माया-विकारको ब्रह्माग्निमें अर्थात् ज्ञानाग्निमें जलाकर भस्म कर दिया, इसीको तपस्या कहते हैं। इन सबको ले जाकर 'मैं' में पड़ने होता है। इस 'मैं' में पड़नेका नाम 'मदर्पण' है। इस प्रकार अर्पणमें कर्मकृतशुभ और अशुभ फल नहीं छू सकता, अतएव कर्मबन्धनसे मुक्ति होती है। 'संन्यास'सं= सम्यक् , न्यास-निक्षेप, त्याग; जब सब त्याग हो गया, तत्क्षणात् तुम्हारा 'मैं' विशुद्ध 'मैं' में पड़ गया, योग भी हो गया। दोनों 'मैं मिलकर एक हो गया; यही युक्त होनेकी अवस्था है। तब और देह अर्थात् देहबुद्धि नहीं रही, 'विमुक्ति' अर्थात् विशेष मुक्ति (सर्वसे ( पृथकता) प्राप्ति हो गई। यही तुम्हारा 'मैं' होना अवस्था है // 27 // 28 // . समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वष्योऽस्ति न प्रियः / ___ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम् // 26 // अन्वयः। अहं सर्वभूतेषु समः। मे द्वष्यः न अस्ति, प्रियः न ( अस्ति)। ये तु भक्त्या मां भजन्ति ते मयि ( उत्तन्ते ), अहं अपि च तेषु ( वत्त ) // 29 // अनुवाद। मैं सर्वभूतमें हो समान हूँ। मेरे द्वष्य भी नहीं है, प्रिय भी नहीं है। परन्तु जो लोग भक्ति सहकार मुझको भजन करते है, वह लोग हममें रहते है, "मैं" भी उन सबके भीतर रहता हूँ // 29 // /
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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