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________________ नवम अध्याय 401 वह जो श्रुति-उक्त यज्ञ, स्मृति-उक्त यज्ञ और यह संसाररूपी अज्ञानता की आहुतिरूपी यज्ञ है-इन तीनोंका भोक्ता और प्रभु "मैं ही मैं" हूँ। इस “मैं” को न जान करके और एक पृथक मैं को बना लेनेसे ही पुनरावृत्ति अवश्यम्भावी है // 24 // यान्ति देवव्रता देवान् फ्तिन यान्ति पितृव्रता : भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम् // 25 // अन्वयः। देवव्रताः देवान् यान्ति, पितृव्रताः पितृन् यान्ति, भूतेच्या ( भूताना पूजकाः ) भूतानि यान्ति; मद्याजिनः मां अपि यान्ति // 25 // - अनुवाद। देवपूजकगण देवताओंको प्राप्त होते है, पितृपूजकगण पितृगणको प्राप्त होते है, भूतयाजिगण भूतोंको प्राप्त होते है, मदयाजिगण मुझको ही प्राप्त होते है // 25 // . ____ व्याख्या। कोई कार्य एक बार करचुकनेसे, उसकी शक्तिसे और एक बार ठीक उसी प्रकार कार्यको कराय देता है। ऐसे किसी एक को बहुत बार करनेसे ही, वह अभ्यासमें आता है। वह अभ्यास गाढ़ा हो जानेसे ही, वही गाढ़ापन संस्कार रूपसे खड़ा हो जाता हैं। इच्छा न रहनेसे भी आपही आप अनजान भावसे उसी कार्यको कराय देना संस्कारके कार्य है। क्योंकि, सांस्कारिक अन्तःकरण संस्कार बिना और किसीको जानता ही नहीं। यदि मैं किसी देवता का भजन करू तो मेरे अन्तःकरणमें उस देवता का संस्कार ही घुल जाता है। शरीर त्याग करनेके समय सस्कारके शक्तिसे मनमें वही देवता ही आकर उदय होता है। यदि उस देवताको लेकर शरीर त्याग हो, तो उसी देवलोकमें जाकर उसी देवताका प्राकार धारणकर उसी देवताका सालोक्य भोग करना पड़ता है। तैसे जो सब साधक -26
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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