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________________ नवम अध्याय __365 व्याख्या। तप= तापने / सृष्टिकर्ता ब्रह्माजीके ऊपर प्रथम अशरीरि वाणी 'तप' है। साधक जब क्रियाविशेष द्वारा नादमें जा करके पहुंचते हैं, तब उनको ज्योति प्रत्यक्ष होती है। उस ज्योतिकी महियसी शक्ति इतनी है कि, उसके दर्शनमात्रसे मन संकल्प-विकल्पको अलग छोड़कर उस ज्योतिके भीतर घुस जाता है। क्योंकि ज्योति मनको छा लेती है, मन भो अपने कर्मके साथ मिट जाता है। मनके अभाव होनेसे शरीर-वाक्यादि सब विस्मृतिको प्राप्त होती है / इसलिये जगद्व्यापार मिट जा करके अन्तःकरणका आवरण खुल जाता हैं। और 'मैं ही मैं बिना दूसरे बोध्य-बोधन नहीं रहता। यही समाधि-स्थिति, क्रियाकी परावस्था वा प्रश्वासका शेष है। यही आकर्षण वा तापन है, जैसे सूर्य किरणसे समुद्रका जलवण श्राहरण है। 'वर्ष' = विकर्षण वा स्राव है। वह जो समाधिस्थ चित्तलय अवस्था है, उसमें संसार बीज रहता है; क्योंकि शरीरका शेष निश्वास न फक करके ही यह अवस्था होता है। इसलिये पुनः संसार-अवस्था में आने पड़ता है। उस आनेको ही विकर्षण वा वर्षण कहते हैं। यह प्रकृतिकी संसारमुखी गति वा निश्वास है। 'निग्रह'-निः= नास्ति, ग्रह = ग्रहण, अर्थात् जहां ग्रहण नहीं है, फिर त्याग भी नहीं है, ऐसा जो ग्रहण-त्याग शून्य अवस्था है, उसी को निग्रह अर्थात् प्रलय कहते हैं। प्रकृति-विलयका नाम प्रलय है। और सृष्टिको उत्सृजन कहते हैं प्रकृतिका स्फुरण सृष्टि है / यह दोनों ही "मैं' से होती हैं। संसार-जाल समेटकर प्रकृति जव "मैं" में विश्राम करती है तब ही अमरत्व और सत् अवस्था होती है। फिर जब "मैं" से खिसककर जगत् जालका विस्तार करती है, तब मर वा असत् अवस्था है। असत् कहते हैं तीनों कालमें जिसके विद्यमानता का अभाव है अर्थात् केवल भ्रम / साधक ! देखो, इन सबमें एकमात्र मैं ही में विद्यमान हूँ, केवल वाणीको मार पेंच मात्र है। जब तुम
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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