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________________ 360 श्रीमद्भगवद्गीता तुम्हारा जो बहिर्जगत् का “मैं” ( अधोमुखी वृत्ति ) है उसी मैंको गुरूपदिष्ट क्रियासे समेटते समेटते सब समेटना शेष करके जब सर्वशेषके “मैं” में कूदने जाते हो, तब एक बार देख लो, उस "मैं" से ही तुम कटिबद्ध होके सृष्टिमुखी वृत्तिको लिये थे, कितने क्या सृष्टि भी कर डाले थे; अब उन्हीं सब सृष्टि समेट करके, जिस मैंसे बाहर हुये थे, फिर वही “मैं” होते हो। इसलिये आज्य वा हवि शब्दमें पुनर्भव अर्थात् 'मैं ही मैं हूं। "अहं अग्निः”। अग्नि भी मैं हूँ। अग्नि कहते हैं स्वयोनिभूक को, अर्थात् अपने उत्पत्ति स्थानको जो खाता है। काष्ठके भीतर अग्नि है, परन्तु आपही आप काष्ठ जल नहीं उठता / परन्तु दो काष्ठ लेकर घिसनेसे ही अग्नि निकल आती है; अपना उत्पत्ति स्थान जो काष्ठ , उसको खा डालती है; पश्चात् आप भी विश्रामको लेती है / जबतक वह काष्ठ और अंगार रहता है, तबतक ही अग्निका नाम ऊर्वशिख है, अर्थात जिसकी शिखा ऊंचे दिशामें है। जब मैं मायाके गर्भमें प्रवेश किया था, प्रवेशके पश्चात् अपना स्वरूप छिपा रक्खा था, तब वह काष्ठगत अग्निके सदृश मायाके शरीरमें विराजता था। जितनो दुईशा वा सुदशा काष्ठमें आ पड़ती थी, काष्ठके साथ मैं भी उसको भोगता था। तसे मायामें भी है। यह सृष्टिमुखी वृत्तिका काष्ठ हुआ। फिर जब मैं-मुखी वृत्ति लेनेका समय आया, मेरे उद्धार के कर्ता श्रीगुरुदेवने उन दोनों मुखको एक करके जैसे रगड़ दिया वैसे ही झटसे जलकर मेरी जो योनि, माया वा महत है, उसको खाकर आपही आप क्रिया समाप्ति करके ऊंचेमें आकर विश्राम लिया, अर्थात "मैं” हो गया। अतएव अग्नि भी 'मैं' हूँ। - "अहं हुतं” / हुत शब्दमें हवन कार्य्य, अर्थात् जिस गुरूपदिष्ट क्रियासे, इस जगद्-व्यापारको “मैं” में अर्थात् ब्रह्माग्निमें आहुति देकर मुक्ति लिया जाता है वही क्रिया है / वह क्रिया भी "मैं" हूँ। 6
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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