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________________ श्रीमद्भगवद्गीता प्रकार अन्तःकरणकी दुर्बलता जिसकी है, वही मूढ़ है। क्योंकि भोगलालसाके श्रापूरणसे वह बचता है, और न होनेसे मरता है। इस अवस्थापन्न लोग, संकीर्णचेता है; “मैं” जो अनादि अनन्त, इस भूतबाजारके महान ईश्वर हूं, सो अपनेको समझ नहीं सकते; इसलिये आपही अपनेको छोटेसे डिबियामें शालग्राम शिला ( नारायण ) सजाकर अवज्ञा करता है। अनित्य आशा, अनित्य कर्म, अनित्य ज्वालामयी राक्षसी, आसुरी (आत्मघातिनी ) प्रकृति का आश्रय लेना ही इसका कारण है // 11 // 12 // महात्मानस्तु मां पार्थ देवों प्रकृतिमाश्रिताः। भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम् / 13 // अन्वयः। हे पार्थ! तु ( किन्तु ) देवी प्रकृति आश्रिताः महात्मानः अनन्यमनसः ( सन्त्र ) मा अव्ययं भूतादिं ( जगत्कारणं ) ज्ञात्वः भजन्ति // 13 // अनुवाद / हे पार्थ! परन्तु देवीप्रकृति विशिष्ट महात्मागण अनन्यभना होकर मुझको भूतके आदि और अव्यय जानकर भजते रहते हैं / / 13 // व्याख्या। महत् प्रधान है, और मैं आत्मा हूँ। यह प्रधान अर्थात् मूल प्रकृति वा माया जब सब छोड़कर 'मैं' को सन्मुखमें लेकर बैठ रहे, अथच "मैं" में मिल न जाय, तथा पीठके ओर (संसारवाले) कोई कार्य भी न करे, मायाको इस अवस्थामें जो रहते हैं, वही साधक महात्मा हैं। यह अवस्था, साधन बलसे मन-बुद्धि-अहंकारचित्तके चारों अवस्थाको पीछे करके, 'मैं-मुखी दृष्टिसे होता है, और नीचे दिशा ( चित्तके भी कार्यविमुक्ति अवस्थाके प्रारम्भके नीचे ) में किसी अन्तःकरणके धर्ममें रहनेसे ( यह ) होनेका युक्ति नहीं है। यह तो अतिमात्र तीव्र साधकका काम है। इस समय प्रकृति प्रसव शक्ति त्याग करके पतिरता होती है इस करके "दैवी प्रकृति" कहा हुआ है। साधक भी इस अवस्थापन्न प्रकृतिके आश्रय करके मन
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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