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________________ श्रीमदमबद्रीता गुण भी रहता है, जब प्रकाश शेष होकर स्थिति हो गया, होना न होना सब क्रिया मिट कर प्रकाश ही प्रकाश रह गया; यह स्थितिही (शुद्ध) "तमः" है। इस तमोको ही गुणातीत अवस्था कहते हैं / इसको कर्म छू नहीं सकता यह गुणके अतीत अति उच्चपद है; यहां कर्म पहुँच नहीं सकता। मैं 'उदासीनवत्" अर्थात् उस ऊंचे में बैठ रहनेके सदृश बैठा हूँ। सत्व, सत्वरजः, रजस्तम यह सब गुण नीचे में जैसे किल विला करते, घमते फिरते रहते हैं। मेरी आसक्ति इन सबके ऊपर न होनेसे तो कोई भी मुझको छू नहीं सकेगा। मेरेमें आसक्ति भी नहीं है, मुझको यह सब छू भी नहीं सकते। छूया छूत अर्थात् गुण स्पर्श दोष ही बन्धन है, मुझमें गुण स्पर्श नहीं, इसलिये बन्धन भी नहीं है / / 6 // ' . ..... मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम् / हेतुनानेन कौन्तेय जगद् विपरिवर्तते // 10 // अन्वयः। हे कौन्तेय ! अध्यक्षेण ( अधिष्ठात्रा ) मया प्रकृतिः सचराचरं ( व्यक्ताव्यक्तात्मकं विश्वं ) सूयते (जनयति ); अनेन हेतुना ( अध्यक्षत्वेन ) जगत् विपरिषत्त'ते ( पुनः पुनः जायते)॥ 10 // अनुवाद। हे कौन्तेय! मेरे अध्यक्षतामें प्रकृति सचराचर जगत्को प्रसव करता है; इस अध्यक्षता हेतु जगत् बारंबार बदलता ( जनमता ) है // 10 // व्याख्या। अध्यक्ष जैसे चीनी ढोवनेवाला बैल ( बरधा ) है ; बोमा ढोवते मरे, परन्तु दूसरा जन चीनी खाय। वैसे कार्य करके परिश्रम कर मरूं मैं; उस कार्यका फलागी हो दूसरा कोई। यहां मैं ( अहंकार ) अध्यक्ष हुआ। आकाशके ऊपर एक दृष्टिसे बहुत देर तक दृक शक्तिको रखनेसे ( ताकनेसे ) लम्बे लम्बे गोल गोल, हिजिर-विजिर कितना क्या देखने में आता है, वह सब जैसे दृष्टिके विकार बिना कोई वस्तु नहीं है, तसे चित्तपटमें प्रतिविम्बित
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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