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________________ 374 श्रीमद्भगवद्गीता है। यह "कल्पादि" और "कल्पक्षय” हुआ। इसी तरह मन कल्पना परित्याग करके जब बुद्धिको आश्रय करता है, तत्क्षणात् बुद्धि अहंकार को आश्रय करती है। यह अहंकारही छोटे “मैं” अर्थात् जीव है / जबतक साधक चित्तभेद करके विवस्वानके ऊपर पीठमें न पहुंचे, तब तक उनको चित्तके श्राधीनमें रहने होता है / इसीलिये क्रियाकी परावस्था भोग करके भी साधकको पुनः संसार अवस्थामें, अर्थात् क्रियाकी परावस्थाकी परावस्थामें उतर आने पड़ता है; यह "कल्पादि” हुआ / क्रियाकी परावस्थामें ब्रह्मत्व भोग किया, फिर विवश होकरके जो पुनः संसारावृत्ति हुआ, फिर जो जीव सज कर नाचने लगा, यह प्रकृतिके वशतापन्नका दृष्टान्त और दैनिक प्रलय तथा जन्म ग्रहणके भोगाभोगका बोधन है, यह जैसे अल्पकाल स्थायी है, मृत्युके बाद तैसे कुछ अधिक काल रह करके पुनः संसार प्राप्ति वा जन्म होता है। इससे और कुछ अधिक काल परिलीन अवस्थामें रहनेका नाम महाप्रलय है। परिलीन अवस्थाको ही "कल्पक्षय" कहते हैं। और प्राकृतिक स्फुरण अवस्थाको कल्लके आदि कहते हैं / प्रकृति जैसे "मैं” में लगकर विभोर होकर "मुझको" न लेकर चक्कर खाती है, विवशका खेल खेलती है, प्रकृतिगत जो कुछ है वह सब भी उसी प्रकृति सदृश विवश होकर चक्कर खानेवाले खेलमें योग दिया है। यह कल्पक्षय और कल्पादि कहा गया है // 7 // प्रकृति स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः। भूतग्राममिमं कृत्स्नमवश प्रकृतेर्वशात् // 8 // . अन्वयः। ( अहं ) स्वां प्रकृति अवष्टभ्य ( अधिष्ठाय ) प्रकृतेर्वशात् अवशं इमं कृत्स्र भूतप्रामं पुनः पुनः विमृजामि / / 8 // अनुवाद। (मैं ) अपने ( निज ) प्रकृतिको आश्चय करके, प्रकृति के बशमें विवश इन समस्त भूतोंको बारंबार सृजन करता हूं // 8 //
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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